श्‍वास-प्रश्‍वास के प्रति सजग रहें।

बुद्ध ने कहा है। अपनी श्‍वास-प्रश्‍वास के प्रति सजग रहो। अंदर जाती, बहार आती, श्‍वास के प्रति होश पूर्ण हो जाओ। बुद्ध अंतराल की चर्चा नहीं करते। बुद्ध ने सोचा और समझा कि अगर तुम अंतराल की, दो श्‍वासों के बीच के विराम की फिक्र करने लगे, तो उससे तुम्‍हारी सजगता खंडित होगी। इसलिए उन्‍होंने सिर्फ यह कहा कि होश रखो, जब श्‍वास भीतर आए तो तुम भी उसके साथ भीतर जाओ और जब श्‍वास बहार आये तो तुम उसके साथ बाहर आओ।
इसका कारण है। कारण यह है कि बुद्ध बहुत साधारण लोगों से, सीधे-सादे लोगों से बोल रहे थे। वे उनसे अंतराल की बात करते तो उससे लोगों में अंतराल को पाने की एक अलग कामना निर्मित हो जाती। और यह अंतराल को पाने की कामना बोध में बाधा बन जाती। बुद्ध कभी इसकी चर्चा नहीं करते; इसीलिए बुद्ध की विधि आधी है।
लेकिन दूसरा हिस्‍सा अपने आप ही चला आता है। अगर तुम श्‍वास के प्रति सजगता का अभ्‍यास करते गए तो एक दिन अनजाने ही तुम अंतराल को पा जाओगे। क्‍योंकि जैसे-जैसे तुम्‍हारा बोध तीव्र, गहरा और सघन होगा; जब सारा संसार भूल जाएगा। बस श्‍वास का आना जाना ही एकमात्र बोध रह जाएगा – तब अचानक तुम उस अंतराल को अनुभव करोगे। जिसमें श्‍वास नहीं है।
यह एक विधि लाखों-करोड़ों लोगों के लिए पर्याप्‍त है। सदियों तक समूचा एशिया इस एक विधि के साथ जीया और उसका प्रयोग करता रहा।
तिब्‍बत, चीन, जापन, बर्मा, श्‍याम, श्रीलंका। भारत को छोड़कर समस्‍त एशिया सदियों तक इस एक विधि का उपयोग करता रहा। और इस एक विधि के द्वारा हजारों-हजारों व्‍यक्‍ति ज्ञान को उपलब्‍ध हुए।
दुर्भाग्‍य की बात कि चूंकि यह विधि बुद्ध के नाम से संबंद्ध हो गई। इसलिए हिंदू इस विधि से बचने की चेष्‍टा में लगे रहे। क्‍योंकि यह बौद्ध विधि की तरह बहुत प्रसिद्ध हुई। जबकि यह शिव की योग विधि है।
यह न हिंदू है और न बौद्ध, और विधि मात्र विधि है। बुद्ध ने इसका उपयोग किया, लेकिन यह उपयोग के लिए मौजूद ही थी। और इस विधि के चलते बुद्ध – बुद्ध हुए। विधि तो बुद्ध से भी पहले थी।
ओशो

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