पुष्कलावती नामक देश के एक घने वन में भीलों की एक बस्ती थी। उनके सरदार का नाम पुरूरवा था। उसकी पत्नी का नाम कालिका था। दोनों वन में घात लगाकर बैठ जाते और आते-जाते यात्रियों को लूटकर उन्हें मार डालते। यही उनका काम था।
एक बार सागरसेन नामक एक जैनाचार्य उस वन से गुजरे तो पुरूरवा ने उन्हें मारने के लिए धनुष तान लिया। ज्यों ही वह तीर छोड़ने को हुआ, कालिका ने उसे रोक लिया-
‘स्वामी! इनका तेज देखकर लगता है, ये कोई देवपुरुष हैं। ये तो बिना मारे ही हमारा घर अन्न-धन से भर सकते हैं।’
‘स्वामी! इनका तेज देखकर लगता है, ये कोई देवपुरुष हैं। ये तो बिना मारे ही हमारा घर अन्न-धन से भर सकते हैं।’
पुरूरवा को पत्नी की बाच जंच गई। दोनों मुनि के निकट पहुंचे तो उनका दुष्टवत व्यवहार स्वमेव शांत हो गया और वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए।
मुनि ने अवधिज्ञान से भांप लिया कि वह भील ही 24वें तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने वाला है अत: उसके कल्याण हेतु उन्होंने उसे अहिंसा का उपदेश दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने को कहा।
भील ने उनकी बात को गांठ में बांध लिया और अहिंसा का व्रत लेकर अपना बाकी जीवन परोपकार में बिता दिया।