घूमते हुए महावीर वेगवती नदी के किनारे स्थित एक उजाड़ गांव के निकट पहुंचे। गांव के बाहर एक टीले पर एक मंदिर बना हुआ था। उसके चारों ओर हड्डियों और कंकालों के ढेर लगे थे। महावीर ने सोचा, यह स्थान उनकी साधना के लिए ठीक रहेगा। तभी कुछ ग्रामीण वहां से गुजरे और उनसे बोले- यहां अधिक देर मत ठहरो मुनिराज। यहां जो भी आता है, उसे मंदिर में रहने वाला दैत्य शूलपाणि चट कर जाता है। ये हड्डियां ऐसे ही अभागे लोगों की हैं। यह गांव कभी भरापूरा हुआ करता था। उस दैत्य ने इसे उजाड़कर रख दिया है।’
यह कहकर ग्रामीण तेज कदमों से वहां से चले गए। महावीर ने ग्रामवासियों के मन का भय दूर करने की ठानी और उस मंदिर के प्रांगण में एक स्थान पर खड़े होकर ध्यान करने लगे। जल्दी ही वे अंतरकेंद्रित हो गए।
अंधेरा घिरते ही वातावरण में भयंकर गुर्राहट गूंजने लगी। हाथ में भाला लिए शूलपाणि दैत्य वहां प्रकट हुआ और महावीर को सुलगते नेत्रों से घूरते हुए भयंकर क्रोध से गुर्राने लगा। उसे आश्चर्य हो रहा था कि उससे भयभीत हुए बिना उसके सामने खड़े होकर ही एक मानव ध्यान-साधना में लीन था। वह मुंह से गड़गड़ाहट का शोर करते हुए मंदिर की दीवारों को हिलाने लगा। लेकिन महावीर मुनि न तो भयभीत हुए, न ही उनकी तंद्रा टूटी। अपने छल-बल से शूलपाणि ने वहां एक पागल हाथी प्रकट किया। वह महावीर को अपनी पैनी सूंड चुभोने लगा। फिर उन्हें उठाकर चारों ओर घुमाने लगा। जब महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो वहां एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। वह तीखे नख और दांतों से उन पर प्रहार करने लगा। अगली बार एक भयंकर विषधर उन पर विष उगलने लगा। इतने पर भी महावीर ध्यानमग्न रहे तो शूलपाणि भाले की नुकीली नोक उनकी आंखों, कान, नाक, गर्दन और सिर में चुभोने लगा। लेकिन महावीर ने शरीर से बिलकुल संबंध-विच्छेद कर लिया था अत: उन्हें जरा दर्द का अनुभव नहीं हुआ। यह सहनशीलता की पराकाष्ठा थी, जो केवल तीर्थंकर में ही हो सकती थी।
शूलपाणि समझ गया कि वह मनुष्य निश्चित ही कोई दिव्य प्राणी है। वह भय से थर्राने लगा। तभी महावीर के शरीर से एक दिव्य आभा निकलकर दैत्य के शरीर में समा गई और देखते ही देखते क्रोध पिघल गया, गर्व चूर-चूर हो गया। वह महावीर के चरणों में लोट गया और क्षमा मांगने लगा।
महावीर ने नेत्र खोले और उसे आशीर्वाद देते हुए करुणापूर्ण स्वर में बोले- ‘शूलपाणि! क्रोध से क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रेम से प्रेम की। यदि तुम किसी को भयभीत न करो तो हर भय से मुक्त रहोगे। इसलिए क्रोध की विष-बेल को नष्ट कर दो।’ शूलपाणि के नेत्र खुल गए। उसका जीवन बदल गया।