हिंदू, जैन और यहूदी धर्म

दुनिया के तीन ही मूल और प्राचीन धर्म माने जाते हैं। पहला हिंदू, दूसरा जैन और तीसरा यहूदी। हिंदू और जैन से जहां बौद्ध और सिख विचारधारा का उदय हुआ, वहीं यहूदी धर्म से ईसाई और इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हुई। दुनिया के सभी धर्मों की जड़ है यह तीनों ही धर्म, लेकिन आज जड़ संकट में है। जड़ के संकट में होने के कारण ही दुनिया में आतंक, धर्मांतरण, जातिवाद और तमाम तरह की सांप्रदायिक, राजनीतिक और आपराधिक सोच का बोलबाला हो चला है।

तीन ही रास्ते हैं –
पहला जैन का रास्ता अनिश्वरवाद अर्थात ईश्वर जैसी कोई ताकत नहीं है। असंख्य आत्माएं हैं और यह जगत आत्माओं का ही खेल है। सभी की शक्ति से महाशक्ति का जन्म होता है। सभी स्वत: स्फूर्त है। अपनी आत्मा को इतना बड़ा करो की तुम खुद ईश्वर का पद प्राप्त कर सको। प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर होने की ताकत है। सभी कुछ बीज से वृक्ष हुआ जा रहा है। श्रम करो- यही श्रमणों का धर्म है। एक, दो, तीन या अद्वैत बुद्धि का जाल है। संसार या आत्मा को बुद्धि से नहीं जाना जा सकता।
विशेषता : अनिश्वरवाद, मंदिरमार्गी भी है और मंदिर से दूर रहने वाले भी है।

दूसरा है यहूदी धर्म का रास्ता कि ईश्वर है और जबरदस्त तरीके से है। जो ईश्वर को नहीं मानता वह निंदा लायक है। ईश्वर ने ही यह संसार बसाया और आदमी को बनाया और ईश्वर से डरना जरूरी है। ईश्वर के दूत (पैगंबर) को मानों। सब कुछ द्वैत है..अर्थात दो है। ईश्वर है और यह जगत है। ईश्वर न्यायकर्ता है।
विशेषता : एकेश्वरवाद, मूर्ति पूजा पाप है।

तीसरा रास्ता जो उपरोक्त दोनों रास्तों के बीच से निकलता है, इसीलिए उसे विरोधाभासी माना जाता रहा है- वह है अद्वैत का मार्ग। अद्वैत अर्थात न एक और न ही दो और न तीन। अर्थात दो जैसा दिखाई देने वाला एक। इसका सीधा-सा मतलब है कि वह है भी और नहीं भी। वह नहीं जैसा है या वह है जैसा नहीं है।
इसे समझना मुश्किल है इसलिए सिर्फ मान लो कि ब्रह्म ही सत्य है और सत्य ही ब्रह्म है। सत्य दो धातुओं से मिलकर बना- सत् और तत् अर्थात यह भी और वह भी। जो ऊपर उठता है वह ईश्वर है और जो नीचे गिरता है वह जड़ है।

विशेषता : अद्वैतवादी, ‘न तस्य प्रतिमा:’ अर्थात उसकी प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती।
यह तीन तरह की विचारधारा का जिक्र इसलिए की आधुनिक दुनिया में उक्त विचारधारों को और उनके जन्म की परिस्थिति को कभी भी अच्छे तरीके से न तो समझ गया और न ही समझाया गया। यदि ऐसा होता तो दुनिया में उक्त धर्मों के प्रति इतनी उपेक्षा या नफरत नहीं होती। लेकिन यह भी तय है कि जो लोग अपने पूर्वजों का सम्मान नहीं करते और उन्हें याद नहीं करते उनका अस्तित्व ज्यादा समय तक बरकरार नहीं रह सकता।
न प्रारंभ है और ना अंत…तो कोई भी विचारधारा न तो प्रारंभिक है और न ही अंतिम सत्य की तरह उसे स्वीकार किया जा सकता है। उक्त तीनों विचारधारों के सत्य कोरे विचार नहीं है… हजारों और लाखों वर्ष के अनुभव के आधार पर लिखा गया अनुभूत सत्य। बेसिक फंडामेंटल अर्थात यही है सारभूत, मूलभूत तत्व।

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