सभी को भोगना पड़ता है कर्मों का फल -बुद्ध

श्रावस्ती की एक सभा में महात्मा बुद्घ संसार में व्याप्त प्राणियों की पीड़ा और क्षणभंगुर संसार पर भाषण कर रहे थे।

उसी समय सभा के एक कोने से आवाज आई। एक विधवा ब्राह्मणी अपनी गोद में एक बच्चे को उठाए आई। महात्मा बुद्ध के चरणों में बालक को रखकर बोली -महात्माजी, मौत की वेदना क्या होती है, यह मुझसे पूछो! मेरा एकमात्र लाल मुझे छोड़कर चला गया!

उस मृत बालक को गोद में लेकर बुद्ध बोले- बालक बहुत सुंदर है और उससे भी सुंदर उसकी मां है। यदि मैं तुम्हारे बालक को जीवित कर दूं तो?

विधवा ब्राह्मणी बोली- महाराज, मेरा बेटा मुझे वापस मिल जाए तो मैं अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकती हूं।

महात्मा बुद्ध ने उत्तर दिया-ठीक है, तुम मुट्ठी भर पीली सरसों के दाने लाकर दो।

वह विधवा दाने लेने के लिए तेजी से बढ़ी तो महात्मा बुद्ध बोले-मां! ये पीली सरसों के दाने ऐसे घर से लाना जहां कभी कोई मृत्यु न हुई हो।
महात्मा की बात सुनकर विधवा तेजी से दौड़ी। एक दरवाजे पर गई और भीख के लिए पुकार लगाई। गृहपति ने दरवाजे पर आकर पूछा- क्या चाहिए? केवल मुट्ठीभर पीली सरसों के दाने!

गृहपति सरसों के दाने लेने के लिए घर में घुसने लगा तो उन्हें रोक कर विधवा बोली- श्रीमान! दाने लाने से पहले यह बतलाइए कि कभी आपके परिवार में किसी की मृत्यु तो नहीं हुई?
गृहपति ने उत्तर दिया-मां, क्या कहती हो! इस समय तो घर में पिता, दादा सब मौजूद हैं, पर उनके पिता कहां हैं? ऐसा कौन-सा घर है जहां कभी किसी की मृत्यु न हुई हो?

ब्राह्मणी की आंखें खुल गईं। वह महात्मा बुद्ध के पास पहुंची और बोली-मुझे ऐसा कोई घर नहीं मिला जहां कभी कोई मृत्यु न हुई हो। सब प्राणी अपने कर्मों का फल भोगते हैं। मेरी आंखें खुल गई हैं।

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