बुद्ध ने पढ़ाया ज्ञान का पाठ

एक युवा ब्रह्मचारी देश-विदेश का भ्रमण कर और वहां के ग्रंथों का अध्ययन कर जब अपने देश लौटा, तो सबके पास इस बात की शेखी बघारने लगा कि उसके समान अधिक ज्ञानी-विद्वान और कोई नहीं। उसके पास जो भी व्यक्ति जाता, वह उससे प्रश्न किया करता कि क्या उसने उससे बढ़कर कोई विद्वान देखा है?

बात भगवान बुद्ध के कानों में भी जा पहुंची। वे ब्राह्मण वेश में उसके पास गए। ब्रह्मचारी ने उनसे प्रश्न किया- ‘तुम कौन हो, ब्राह्मण?’

अपने देह और मन पर जिसका पूर्ण अधिकार है, मैं ऐसा एक तुच्छ मनुष्य हूं।’ बुद्धदेव ने जवाब दिया।

भलीभांति स्पष्ट करो, ब्राह्मण! मेरे तो कुछ समझ में न आया।’ वह अहंकारी बोला।
बुद्धदेव बोले- ‘जिस तरह कुम्हार घड़े बनाता है, नाविक नौकाएं चलाता है, धनुर्धारी बाण चलाता है, गायक गीत गाता है, वादक वाद्य बजाता है और विद्वान वाद-विवाद में भाग लेता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष स्वयं पर ही शासन करता है।’

ज्ञानी पुरुष भला स्वयं पर कैसे शासन करता है?’ ब्रह्मचारी ने पुनः प्रश्न किया।
लोगों द्वारा स्तुति-सुमनों की वर्षा किए जाने पर अथवा निंदा के अंगार बरसाने पर भी ज्ञानी पुरुष का मन शांत ही रहता है। उसका मन सदाचार, दया और विश्व-प्रेम पर ही केंद्रित रहता है, अतः प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई भी असर नहीं पड़ता। यही वजह है कि उसके चित्तसागर में शांति की धारा बहती रहती है।’

उस ब्रह्मचारी ने जब स्वयं के बारे में सोचा, तो उसे आत्मग्लानि हुई और बुद्धदेव के चरणों पर गिरकर बोला- ‘स्वामी, अब तक मैं भूल में था। मैं स्वयं को ही ज्ञानी समझता था, किंतु आज मैंने जाना कि मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है।’

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