अंदर की माला से ध्यान करने पर होगी अद्भुत अनुभूतिः ओशो

ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़ धूप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चैबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना-यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है।
यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहत से नहीं होती है। यह तो कभी-कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है। तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?
ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़धूप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चैबीस घंटे में सब आपा धापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर ली; पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर-मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं, क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो।
इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहां प्रकृति नाचती चारों तरफ। चैबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी-तुम्हारे बावजूद-किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संस्पर्श हो जाए, एक क्षण को द्वार खुल जाए, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।
और पहले अनुभव के बाद फिर अनुभव आसान हो जाते हैं। आसान इसलिए हो जाते हैं कि तब तुम्हें एक बात समझ में आ जाती है कि सीधे-सीधे ध्यान को पाने का कोई उपाय नहीं है, परोक्ष मार्ग है। तुम शिथिल रहो, आहिस्ता से चलो, आपाधापी छोड़ो, एक घंटे के लिए कम से कम चैबीस घंटे में लीन हो जाओ प्रकृति में, संगीत सुनो, कि पक्षियों के गीत सुनो; कुछ न हो करने को, आंख बंद कर लो, अपनी सांस सुनो।
बुद्ध ने तो इस पर बहुत जोर दिया। अपनी सांस को ही देखते रहो-आयी, गयी, आयी, गयी-इसकी माला बना लो, इससे बेहतर कोई माला नहीं है। हाथ में माला लेकर फेरोगे, वह तो बहुत जड़ माला है। यहां जीवित श्वास चल रही है, श्वास की माला फेरी जा रही है-श्वास भीतर आयी, बाहर गयी, श्वास भीतर आयी, बाहर गयी-यह जो भीतर चक्र चल रहा है, मंडल श्वास का, इसको ही देखते रहो।
शांत, मौन भाव से इस पर ही टकटकी बांधे रहो और तुम हैरान हो जाओगे, किसी बहुमूल्य मुहूर्त में कभी ताल बैठ जाता है, अचानक सब एक हो जाता है, तुम मिट गए, संसार मिट गया। पहले-पहले तो क्षणभर को ऐसी झलकें आएंगी, खो जाएंगी। जब खो जाएं तो फिर उनकी तीव्रता से आकांक्षा मत करना, अन्यथा वे कभी न आएंगी।
जब खो जाएं, तो कहना ठीक; अब जब फिर दुबारा आएंगी, फिर भोगेंगे। मगर उनके आने के लिए द्वार-दरवाजे खुले रखना। ऐसा ही समझो कि सूरज बाहर निकला है, तुम अपने कमरे में दरवाजा बंद किए बैठे हो, रोशनी भीतर नहीं आती। अब सूरज को कोई गट्ठर में बांधकर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है!
सूरज की किरणों को कोई गाय-बैल जैसा हांककर भीतर लाने का उपाय भी तो नहीं है! क्या करोगे? दरवाजा खोल दो, सूरज की किरणें अपने से भीतर आ जाती हैं। कभी-कभी रात होगी और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज नहीं है। कभी-कभी दिन होगा और आएंगी, क्योंकि सूरज है।
कभी-कभी दिन भी होगा और बादल घिरे होंगे और नहीं आएंगी, क्योंकि सूरज बादलों में ढंका है। मगर कभी-कभी मौके मिलेंगे जब दिन है, बादल भी नहीं हैं, सूरज प्रकट है, तो किरणें भीतर आएंगी। तुम ज्यादा से ज्यादा बाधा न दो, बस इतना ही काफी है।

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