‘महिलायें एवं आध्यात्मिकता’ श्रृंखला के दूसरे भाग में सद्गुरु बता रहे हैं कि कैसे हमारी संस्कृति और परम्पराओं में विकृत बोध ने जागह पा ली, जिसके कारण आध्यात्मिक मार्ग पर चल रही महिलाओं के साथ पक्षपात किया गया।
पुरुषों की तरह महिलाएँ भी 10 से 20 वर्ष विवाहित रहतीं थीं। और फिर, यदि उन्हें आध्यात्मिक होने की गहरी इच्छा होती थी तो वे भी परिवार का त्याग कर सकतीं थीं।
सदगुरु :
भारतीय आध्यात्मिकता, हमेशा ऐसे पुरुषों और महिलाओं का एक समृद्ध मिश्रण रही है, जो अपनी चेतना के शिखर पर पहुंचे थे। जब मनुष्य के आंतरिक स्वभाव की बात होती है तो महिलाओं में भी उतनी ही योग्यता है, जितनी पुरुषों में। यह तो आपका बाहरी हिस्सा, यानि शरीर है जिसे आप पुरुष या महिला कहते हैं। जो चीज़ भीतर है, वो एक ही है। बाहरी हिस्सा यह बिल्कुल भी तय नहीं करता कि किसी की आध्यात्मिक योग्यता क्या है।
प्राचीन काल में महिलायें भी यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करतीं थीं क्योंकि इसे पहने बिना वे शास्त्र नहीं पढ़ सकतीं थीं। पुरुषों की तरह महिलाएँ भी 10 से 20 वर्ष विवाहित रहतीं थीं। और फिर, यदि उन्हें आध्यात्मिक होने की गहरी इच्छा होती थी तो वे भी परिवार का त्याग कर सकतीं थीं। लेकिन जब दुष्ट, अत्याचारी लोगों ने भारत पर हमले करने शुरू किये तो धीरे धीरे स्त्रियों की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी। पारम्परिक नियम बदलने लगे। शायद कुछ समय के लिये यह ज़रूरी भी था क्योंकि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार महिलाओं की अपनी सुरक्षा के लिये, उन पर कुछ बंधन लगाना आवश्यक हो गया। लेकिन, दुर्भाग्यवश, यह कायदा ही बन गया। महिलाओं के लिये सबसे पहली गलत बात यह हुई कि यह घोषित किया गया कि वे यज्ञोपवीत नहीं पहन सकतीं। फिर यह भी कहा गया कि महिलाओं को मुक्ति केवल अपने पति की सेवा करने से ही मिल सकती है। यह तय किया गया कि केवल पुरुष ही परिवार का त्याग कर सकेंगे।
यदि एक स्त्री जिसमें से पुरुष उत्पन्न होता है – हीन है, तो फिर पुरुष श्रेष्ठ कैसे हो सकता है? इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है। ये समस्या सारे विश्व में है। ये सिर्फ एक गलत व्यक्ति के विचार नहीं हैं। ये अब पुरुषों की जीवन पद्धति ही हो गयी है, और उनके धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा भी।
दुर्भाग्य से, ये चीज़ें कभी-कभी आज भी होती दिखतीं हैं। स्त्री को बताया जाता है कि उसका जन्म सिर्फ पिता या पति की सेवा करने के लिये ही हुआ है। लोग अस्तित्व के अद्वैत रूप की चर्चा करते हैं और फिर भी कहते हैं, ”हरेक वस्तु एक ही है, पर महिलायें कम हैं”। यह जानते हुए कि पुरुष का अस्तित्व स्त्री पर निर्भर करता है, यदि वह एक स्त्री को समान स्तर पर स्वीकार नहीं करता तो उसके लिये अस्तित्व के अद्वैत रूप को स्वीकार कर सकने का प्रश्न ही नहीं उठता।
हीनता या श्रेष्ठता का प्रश्न सिर्फ एक पूर्वधारणाओं से भरे मन में ही उठ सकता है। यह सिर्फ दो गुणों की बात है। यदि एक स्त्री जिसमें से पुरुष उत्पन्न होता है – हीन है, तो फिर पुरुष श्रेष्ठ कैसे हो सकता है? इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है। ये समस्या सारे विश्व में है। ये सिर्फ एक गलत व्यक्ति के विचार नहीं हैं। ये अब पुरुषों की जीवन पद्धति ही हो गयी है, और उनके धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा भी।
एक बार एक समाज सुधारक स्वामी विवेकानंद के पास गया और कहा, “यह अच्छी बात है कि आप भी महिलाओं का समर्थन करते हैं, उनकी सहायता करते हैं। ये बताईये, मैं क्या करूँ, मैं भी उनका सुधार करना चाहता हूँ। मैं इसमें मदद करना चाहता हूँ।” तब विवेकानंद ने कहा, “उनसे दूर रहो। तुम्हें उनके लिये कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें अकेला छोड़ दो। उनको जो करना है वो स्वयं कर लेंगी”। तो बस यही करने की ज़रूरत है। पुरुषों को महिलाओं का सुधार करने की आवश्यकता नहीं है। वो बस उन्हें स्वतंत्रता दे तो वे वह सब कर लेंगीं जो आवश्यक है।