गुरु पूर्णिमा के अवसर पर, पढ़ते हैं सद्गुरु की तीन गुरु पूर्णिमा से जुड़ी कवितायेँ। ये कविताएँ गहरी, अंतर्दृष्टिपूर्ण और व्यक्तिगत हैं। पहली कविता आदिगुरु – पहले गुरु के बारे में है। दूसरी और तीसरी गुरु पूर्णिमा कविताओं में, सद्गुरु एक साधक के रूप में अपने अनुभवों के बारे में, और उस पल के अनुभव के बार में बता रहे हैं, जब उन्होंने अपने गुरु की कृपा प्राप्त की थी।
सद्गुरु: आदियोगी आलयम प्रतिष्ठा के ठीक बाद मैं थोड़ा नशे की हालत में था। कार्यक्रम और यात्राओं के कारण, मैं मंदिर में आवश्यक प्रारंभिक काम नहीं कर सका, और फिर 11,000 से अधिक लोगों की उपस्थिति में पूरी प्राण प्रतिष्ठा को करने का जोखिम उठाया। मैं इन लोगों के आगे सिर झुकाता हूं क्योंकि वे सभी वहां घुलमिल कर एक प्राणी की तरह बन गए थे। उनमें भक्ति और फोकस की असाधारण भावना देखने को मिली। पारे और जहर के मिश्रण को ऐसी स्थिति में संभालने की वजह से, मुझे थोड़ा सा गलत असर हो गया। मेरे मन में पहले खुद ही इसे ठीक करने का विचार आया, पर फिर मैंने आदियोगी की कृपा में खुद को डुबो दिया और पूरी तरह ठीक होकर कृतज्ञता और दृढ़ संकल्प से भर गया।
सात अलौकिक ऋषि
पर्वत पर बैठे उस वैरागी
से दूर रहते थे तपस्वी भी
पर उन सातों ने किया सब कुछ सहन
और उनसे नहीं फेर सके शिव अपने नयन
उन सातों की प्रचंड तीव्रता
ने तोड़ दिया उनका हठ व धृष्टता
दिव्यलोक के वे सप्त-ऋषि
नहीं ढूंढ रहे थे स्वर्ग की आड़
तलाश रहे थे वे हर मानव के लिए एक राह
जो पहुंचा सके स्वर्ग और नर्क के पार
अपनी प्रजाति के लिए
न छोड़ी मेहनत में कोई कमी
शिव रोक न सके कृपा अपनी
शिव मुड़े दक्षिण की ओर
देखने लगे मानवता की ओर
न सिर्फ वे हुए दर्शन विभोर
उनकी कृपा की बारिश में
भीगा उनका पोर-पोर
अनादि देव के कृपा प्रवाह में
वो सातों उमडऩे लगे ज्ञान में
बनाया एक सेतु
विश्व को सख्त कैद से
मुक्त करने हेतु
बरस रहा है आज भी यह पावन ज्ञान
हम नहीं रुकेंगे तब तक
जब तक हर कीड़े तक
न पहुंच जाए यह विज्ञान