उनके सामने एक किताब खुली थी। लिखा था- ‘हे मनुष्य संदेह न कर, विचार न कर, जांच-परख न कर, बस आंखें मूंदकर विश्वास कर। यही श्रद्धा है।’ बात रास नहीं आई। आनी भी नहीं चाहिए थी। हर युग में ऐसे लोगों की एक बड़ी जमात रहती आई है, जो आपको जांच-परख करने से रोकती है। जो नहीं चाहते कि आप विचारक हों। वे आपको अनुयायी बनाना चाहते हैं, क्योंकि ऐसे में ही उन्हें आपनी सत्ता चलती दिखाई देती है। हम देखते हैं कि उनकी चाल सफल है। हममें से ज्यादातर लोग अनुभव को नहीं, अनुकरण को महत्व देते हैं। अनुयायियों की संख्या को समझ के सही होने का एक प्रमाण मानते हैं।
गौतम बुद्ध से लेकर ओशो रजनीश तक ने यही समझाया कि अनुकरण खतरनाक है। जिस चीज को मन से महसूस न किया जाए, उसे करना बेवकूफी है। सत्य की खोज खुद की जानी चाहिए, तभी वह सत्य होता है। सत्य का आधार विचार है और विचार का संदेह। कोई संदेहशील है, तो वह विचारक हो सकता है। हमारा स्वभाव ही निरंतर विकसित और परिवद्र्धित होने का है।
हम अपने स्वभाव को जी सकें, इसके लिए जरूरी है कि किसी की नकल करने की कोशिश न की जाए। हमारे विचार जो हमें मौलिकता देते हैं, अगर कट्टर बन जाएं, तो बहुविध टकरावों में अपनी ऊर्जा का गंवाते हैं। विचार अगर विवेक, प्रज्ञा और आत्म-विकास के रास्ते पर चलता रहे, तो वह अनुभूतिजन्य श्रद्धा का रूप ले लेता है। ऐसी हालत में चीजें हमें साफ-साफ दिखाई देती हैैं और हम भी यह चाहने लगते हैं कि कोई हमारी नकल न बने। अनुयायी न बने। हमारी बातों को भी सामने वाला संदेह की नजरों से परखे और अपनी दुनिया में जिए।