लाओत्से कहता है कि उन सूक्ष्मदर्शी, संवेदनशील संतों ने उस परम रहस्य में प्रवेश किया; लेकिन वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
आज भी धर्म मनुष्य की समझ के परे है। और धर्म शायद सदा ही मनुष्य की समझ के परे रहेगा। क्योंकि मनुष्य की समझ वस्तुओं को समझने के लिए योग्य, लेकिन अनुभूतियों को समझने के योग्य नहीं है। मनुष्य की समझ दूसरे को समझने में समर्थ, स्वयं को समझने में अभी भी असमर्थ है। दूसरे को समझना बहुत आसान, खुद को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हमारे पास वह समझ ही नहीं है जो खुद को समझ ले।
इसे हम ऐसा समझें कि अगर मेरी आंखें खराब हो जाएं और मैं दूर ही देख सकूं और पास न देख सकूं, तो उसका अर्थ होता है कि आंखें दूरी पर फिक्स हो गईं। अब मुझे पास देखना हो तो चश्मे की जरूरत पड़े। और दूर देखना हो तो चश्मे की कोई भी जरूरत नहीं है। पास देखना मुश्किल, दूर देखना आसान। करीब-करीब मनुष्य की समझ दूर पर फिक्स हो गई है, ठहर गई है। दूसरे को देखना आसान, दूसरे को समझना आसान। जितने दूर की बात हो अपने से, उतने हम बुद्धिमान होते हैं। और जितनी पास आने लगे, उतने ही हम बुद्धिहीन होने लगते हैं। और जब हमारा ही सवाल हो, तो हम बिलकुल ही मूढ़ होते हैं।
इसलिए बहुत मजे की घटना घटती है कि हममें से सभी लोग दूसरों को सलाह देने में जितने कुशल होते हैं, खुद को सलाह देने में उतने कुशल नहीं होते। और अगर किसी आदमी को हम देखें जब वह दूसरे को सलाह दे रहा हो, तो बहुत बुद्धिमान मालूम पड़ेगा। और ठीक उसी स्थिति में वही आदमी जो करेगा, वह बिलकुल मूढ़तापूर्ण होगा। क्या बात क्या है? दूसरा दूरी पर है। दूरी पर हमारी समझ फोकस हो जाती है। पास, हमारी समझ धुंधली होने लगती है, डगमगाने लगती है। जितने हम पास आते हैं, उतनी कंपित होने लगती हैं आंखें। और बिलकुल पास जब केंद्र पर खड़े होते हैं, तो सब अंधेरा हो जाता है।
एक और तरह की समझ चाहिए, जो स्वयं पर केंद्रित होना जानती हो। धर्म का अर्थ है: स्वयं पर केंद्रित होने की क्षमता।..क्रमश
ताओ उपनिषद-प्रवचन-०३४