जब कोई साधक अपने अंतिम शिखर पर पहुंचता साधना के, तो मन आखिरी जद्दोजहद करता है, आखिरी संघर्ष होता है—कुरुक्षेत्र। अंतिम निर्णायक युद्ध होता है। उस निर्णायक युद्ध को अनेक—अनेक प्रतीकों से कहा गया है।
मुसलमान कहते हैं—शैतान हमला करता है। वह शैतान मन है। ईसाई कहते हैं —डेविल, बीलझेबब हमला करता है। वह बीलझेबब कोई और नहीं, मन है। हिंदू कहते हैं—कामदेव। और स्वभावत: हिंदुओं के पास सबसे श्रेष्ठ कथाएं हैं। क्योंकि उन्होंने खूब परिमार्जित किया है। दस हजार साल तक परिमार्जन किया है। .’गैसें की कथाएं नयी—नयी हैं, उनमें कई भूल—चूके मिल जाएंगी, लेकिन हिंदुओं ने तो खूब परिमार्जन किया है। इसके पहले कि हिंदुओं की कथाएं लिखी गयीं, हजारों साल तक वे कथाएं बुद्धिमानों के हाथ से गुजरती रहीं, उन पर परिमार्जन होता रहा।
तो हिंदुओं की कामदेव की कथा बड़ी अदभुत है, उसमें पहली तो बात यह कि वह अनंग हैं, उनकी कोई देह नहीं। यही तो मन है। मन की कोई देह थोड़े ही है। मन अदेही है। इसीलिए तो मन को कहीं भी जाने में देर नहीं लगती। तुम्हें दिल्ली जाना, समय लगे, कलकत्ता जाना, समय लगे, मन, यह गया। अदेही है, न कोई ट्रेन, न मोटर, न हवाई जहाज, किसी की कोई जरूरत नहीं। सोचा नहीं कि गया नहीं। क्षण भी बीच में टूटता नहीं—समय नहीं लगता। देह अगर मन की होती तो समय लगता।
हिंदुओं की कथा अदभुत है कि शिव को काम ने बहुत ज्यादा पीड़ित किया, परेशान किया तो वह नाराज हो गए और उन्होंने आंख अपनी, तीसरा नेत्र खोल दिया। उस तीसरे नेत्र के कारण जलकर भस्म होकर काम का जो शरीर था वह गिर गया। तब से वह अनंग है। उसके पास देह नहीं है।
यह कथा भी प्यारी है कि तीसरे नेत्र के खोलने से काम जल गया। तीसरे नेत्र के खुलने पर ही काम जलता है। तीसरे नेत्र के खुलने का अर्थ है, अंतर्दृष्टि उपलब्ध हो गयी, भीतर की आंख खुल गयी। जब तक भीतर की आंख बंद है, तभी तक काम का तुम पर प्रभाव है। भीतर की आंख खुल गयी, काम का प्रभाव समाप्त हो गया। भीतर तुम सोए हो, इसलिए काम तुम्हें फुसला लेता है, राजी कर लेता है। भीतर जाग गए, फिर तुम्हें कोई राजी न कर सकेगा।
ओशो