प्रेम से मित्रता और मित्रता से मैत्री – बस इसे ही मेरा सारा धर्म कहा जा सकता है। मित्रता तो एक संबंध है, एक प्रकार का बंधन है – बहुत सूक्ष्म, प्रेम से भी अधिक सूक्ष्म, लेकिन है तो। और इसमें ईर्ष्या है और प्रेम की सब बीमारियां है। ये सूक्ष्म ढंग से आ गई है, लेकिन मैत्री में दूसरे से स्वतंत्रता है। इसलिए इसमें संबंध का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
प्रेम दूसरे के प्रति होता है। मित्रता भी दूसरे के प्रति होती है। मैत्री तो अस्तित्व के प्रति तुम्हारे ह्रदय का खुल जाना है। अचानक, किसी विशेष क्षण में तुम किसी पुरूष या स्त्री या पेड़ या प्रकृति या सितारों के प्रति खुल जाते हो। आरम्भ में तुम पूरे अस्तित्व के प्रति नहीं खुल सकते। अंत में अवश्य तुम्हें अपना हृदय पूर्ण के प्रति, समग्र के प्रति खोलना पड़ता है, किसी विशेष को संबोधित किए बिना। वही क्षण है, वही विशेष क्षण है, इसे सिर्फ ‘क्षण’ ही कहने दो………..
ओशो
स्वर्णिम बचपन, सत्र – 24, पेज़ – 245