याद रखो कि परमात्मा बहरा नहीं है–कि तुम्हें खूब चिल्लाना पड़े, कि तुम्हें जोर-जोर से अजान करनी पड़े, कि तुम्हें जोर-जोर से मंदिर के घंटे बजाने पडे?। परमात्मा बहरा नहीं है। परमात्मा तो तुम्हारे भीतर ही बैठा है, घंटे बजाकर तुम किसको सुना रहे हो? जोर-जोर से चिल्लाकर तुम किसकी पूजा कर रहे हो? आंख बंद कर लो, चुप हो जाओ, और तुम्हारी पूजा पहुंच गई। बंद आंख भीतर अपने खालीपन में ही अर्चना करो, साधना करो। भीतर के शून्य को ही उसके चरणों में चढ़ाओ और सब फूल व्यर्थ हैं।
हम जीवन के ही हिसाब से परमात्मा के संबंध में सोचने लगते हैं। हम सोचते हैं, जोर से चिल्लाओ तो लोग सुनेंगे। तो हम सोचते हैं, परमात्मा भी तभी सुनेगा जब जोर से चिल्लाएंगे। लोग शायद चिल्लाने से सुनते हों क्योंकि लोग बहरे हैं। परमात्मा बहरा नहीं है। लोग शायद चिल्लाने से सुनते हों क्योंकि लोग बहुत व्यस्त हैं और हजार विचारों में व्यस्त हैं। तुम्हारे विचार को पहुंचाने के लिए आवाज देनी पड़ती है। लेकिन परमात्मा व्यस्त नहीं है, परमात्मा तो महाशून्य है। वहां तो तुम्हारी ज़रा-सी भाव की तरंग जल्दी पहुंच जाएगी। और जितना तुम चिल्लाओगे उतनी ही तुम खबर दोगे कि तुम्हें परमात्मा की कोई पहचान नहीं है। चिल्लाने वाले चूक जाएंगे। जिंदगी में बड़े विरोधाभास हैं। जो गणित बाहर की दुनिया में काम आता है, वह भीतर की दुनिया में काम नहीं आता। बाहर एक और एक मिलकर दो होते हैं, भीतर की दुनिया में एक और एक मिलकर एक होता है।
ओशो