सब कुछ दांव पर लगा दने का क्या अर्थ है?

सब कुछ दांव पर लगा दने का क्या अर्थ है?

लोग चालबाजियां कर रहे हैं। लोग परमात्मा के साथ भी. . . मौका लगे तो उसकी भी जेब काट लें; मौका लग जाए तो उसको भी लूट लें।

सब दांव पर लगाने का अर्थ होता है : चालबाजियां अब और नहीं। अब तुम सब खोलकर ही रख दो। तुम कह दो : “यह मैं हूं! बुरा-भला जैसा हूं, स्वीकार कर लें। बुराइयां नहीं हैं, ऐसा भी नहीं कहता। भलाइयां भलाइयां हैं, ऐसा दावा भी नहीं करता। यह हूं बुरा-भला, सब का जोड़त्तोड़ हूं। इसे स्वीकार कर लें। अब आपके हाथ में हूं, अब जैसा बनाना चाहें बना लें।’

पूछा है “योग चिन्मय’ ने। यह प्रश्न योग चिन्मय का है। योग चिन्मय में ऐसी बेईमानी है। प्रश्न अकारण नहीं उठा है। होशियारी है। करते भी हैं तो . . .अगर मैं कहूंगा तो कुछ करते भी हैं तो उतनी ही दूर तक करते हैं जहां तक उनकी बुद्धि को जंचता है; उससे एक इंच आगे नहीं जाते। होशियारी बरतते हैं। होशियारी बरतो, कोई हर्जा नहीं–मेरा कुछ हर्जा नहीं है; तुम ही चूक जाओगे। तो चूकते चले जा रहे हैं। यहां मेरे पास आनेवाले प्राथमिक लोगों में से हैं और पिछड़ते जा रहे हैं। चूंकि सब दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं है। अपनी बुद्धि को बचाकर लगाते हैं। वे कहते हैं: “इत्ता तो हिसाब अपना रखना ही पड़ेगा। कल आप कहने लगो कि गङ्ढे में कूद जाओ तो कैसे कूद जाऊंगा? देख लेता हूं कि ठीक है, नीचे मखमल बिछी है तो कूद जाता हूं। अब गङ्ढे में पत्थर पड़े हों, तब तो मैं रुक जाऊंगा। जब तक मखमल बिछी है, तब तक कूदूंगा; जब गङ्ढे में देखूंगा पत्थर पड़े हैं तो मैं कहूंगा कि अब नहीं कूद सकता।’

. . . तो अपनी होशियारी को लेकर चलोगे–चूक जाओगे। फिर मुझे दोष मत देना। दोष तुम्हारा ही था। अपने को बेशर्त न छोड़ो।

और ऐसे बहुत मित्र हैं। और अगर चूकते हैं तो नाराज होंगे; सोचेंगे कि शायद उन पर मेरी कृपा कम है, शायद मैं पक्षपाती हूं। लेकिन कभी यह न देखेंगे कि क्यों चूक रहे हैं, किस कारण चूक रहे हैं।

मन चालबाज है।

मैंने सुना, एक आदमी ने अखबार में खबर दी : आवश्यकता है एक नौकर की। विज्ञापन पढ़कर एक आदमी नौकरी के लिए आया। नौकरी की आशा से आनेवाले उम्मीदवार ने पूछा कि मुझे वेतन क्या मिलेगा? उस आदमी ने कहा, जिसने विज्ञापन दिया था, कि वेतन कुछ नहीं मिलेगा, केवल खाना मिलेगा। आदमी गरीब था। उसने कहा : “चलो ठीक है, खाना ही सही। और काम? काम क्या होगा?’–नौकर ने पूछा। उन सज्जन ने कहा : “सबेरे-शाम दो वक्त गुरुद्वारा जाकर लंगर में खाना खा आओ और साथ ही हमारे लिए खाना बांधकर लेते आओ।’

आदमी बड़ा बेईमान है! खूब तरकीब निकाली कि लंगर में खाना खा लेना, तुम भी खा लेना, तुम्हारा खाना भी हो गया, खत्म! तुम्हारी नौकरी भी चुक गई और मेरे लिए खाना लेते आना। यह तुम्हारा काम है।. . .तो मुफ्त में सब हो गया।

ऐसे ही लोग आध्यात्म भी बड़ी होशियारी से करना चाहते हैं–मुफ्त में कर लेना चाहते हैं: “कुछ लगे ना, कुछ रेखा न खिंचे, कुछ दांव पर ना लगे! अपने को बचाकर घट जाए घटना। मुफ्त मिल जाए। कोई प्रयास न करना पड़े और कोई कठिनाई न झेलनी पड़े।’

और जहां तुम्हारे अहंकार को चोट हो, जहां तुम्हारी बुद्धि को चोट हो–वहीं पीछे हट जाओगे। और वहीं कसौटी है।

इसलिए पलटू ठीक कहते हैं कि कोई मर्द हो तो बढ़े। मर्द ही नहीं–पागल हो, तो हिम्मत करे इतनी।

सब दांव पर लगा देने का अर्थ हैः पागल की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। अंधे की तरह दांव पर लगा देना; फिर पीछे लौटकर देखना नहीं। पहले दांव पर लगाने के लिए खूब सोच लो, विचार लो। कोई यह नहीं कह रहा है कि सोचो-विचारो मत। खूब सोचो, खूब विचारो, वर्षों बिताओ, चिंतन-मनन करो, सब तरफ से जांच-परख कर लो; लेकिन एक बार जब निर्णय कर लो कि ठीक है, ठीक आदमी के करीब आ गए, यही आदमी है–जब ऐसा लगे कि यही आदमी है तो फिर आगा-पीछा न सोचो। फिर सब चरणों में रख दो। फिर कहो कि ठीक है, अब तुम्हारे साथ चलता हूं : नरक जाओ तो नरक, स्वर्ग जाओ तो स्वर्ग; अब तुम जहां रहोगे वहीं मेरा स्वर्ग है।और तुम जैसे रखोगे वही मेरा स्वर्ग है।

असल में अहंकार दांव पर लगा देने का अर्थ है।

तुम संन्यास भी लेते हो तो तुम अहंकार दांव पर नहीं लगाते।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो

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