सचेतनता एक संक्रामक रोग की तरह है

सचेतनता एक संक्रामक रोग की तरह है

एक शिक्षक, जो स्वयं अपने प्रति ही सजग नहीं है, एक शिक्षक नहीं हो सकता। जो अनुभव उसने स्वयं प्राप्त नहीं किया है, उसे वह दूसरों को नहीं सिखा सकता है।

सचेतनता एक संक्रामक रोग की तरह है। जब एक गुरु सजग और सचेत होता है, तो उस सजगता से तुम भी संक्रमित हो जाते हो। कभी-कभी केवल गुरु के निकट बैठे हुए ही अचानक तुम सजग हो जाते हो, जैसे मानो बादल छंट गए हों और तुम खुला हुआ आकाश देख सकते हो। ऐसा भले ही एक क्षण के लिए हो लेकिन वह तुम्हारे अस्तित्व की प्रामाणिक गुणवत्ता में एक गहन परिवर्तन कर जाता है।

अपनी ओर से भले ही तुम कोई भी प्रयास न करो, लेकिन एक सदगुरु के निकट बने रहने से ही तुम मौन हो जाते हो, क्योंकि सदगुरु मौन सचेतनता का एक सरोवर है। वह अंदर तक तुम्हें स्पर्श करता है। तब तुम्हारे बंद द्वार खुल जाते हैं या मानो एक अंधेरी रात में अचानक बिजली कौंध जाती है और तुम उस अखंड को देख पाते हो। वह शीघ्र ही विलुप्त हो जाता है, क्योंकि उसे तुम बलपूर्वक रोक नहीं सकते, वह तुम्हारे कारण नहीं हुआ है। यदि वह तुम्हारे कारण नहीं हुआ है तो तुम उसे खो दोगे लेकिन उसके बाद तुम पहले जैसे नहीं रहोगे, तुममें कुछ बदल गया है, तुमने कुछ ऐसा जान लिया है जिससे तुम अनजान थे। अब यह जानना तुम्हारा अपना अनुभव है, यह तुम्हारा हिस्सा बनकर रहेगा। तब एक कामना उत्पन्न होगी, एक आकांक्षा पैदा होगी… इस अनुभव को दुबारा प्राप्त करने की और इसे स्थाई बनाने की, क्योंकि एक क्षण के लिए ही सही, वह अत्यंत आनंददायी था, उसने तुम्हारे ऊपर इतनी अपार प्रसन्नता और आनंद की वर्षा कर दी।

लेकिन यदि सदगुरु अथवा शिक्षक स्वयं ही सचेत नहीं है, तो वह सचेतनता के बारे में तो सिखा सकता है, लेकिन सचेतनता नहीं सिखा सकता है। सचेतनता के बारे में सीखना व्यर्थ है, वह मौखिक है, वह केवल एक सिद्धांत है। तुम उससे सिद्धांत तो सीख सकते हो, लेकिन तुम उससे सत्य नहीं सीख सकते। 

शिक्षा के जगत में एक छात्र की परीक्षा ली जाती है, लेकिन केवल उसकी स्मरण शक्ति की ही परीक्षा ली जाती है, कभी भी स्वयं उसका परीक्षण नहीं किया जाता। हमेशा ही केवल स्मृति का परीक्षण है, छात्र का कभी भी नहीं। और प्रश्न अतीत का नहीं है, प्रश्न है वर्तमान का और उस वर्तमान क्षण में उपस्थित बने रहने का।

सफ़ेद बादलों का मार्ग 

ओशो

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