सत्य की खोज कर दो दिशाएं हैं-एक विचार की, एक दर्शन की। विचार का मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गंतव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में उलझ कर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं।
मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलब्धि शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है।
विचार का मार्ग उधार है। दूसरों के विचारों को ही उसमें निज की संपत्ति मानकर चलना होता है। उनके ही ऊहापोह और नए-नए संयोगों को मिलाकर मौलिकता की आत्म वंचना पैदा की जाती है। जबकि विचार कभी भी मौलिक नहीं हो सकते हैं। दर्शन ही मौलिक होता है, क्योंकि उसका जन्म स्वंय की अंतर्दृष्टि से होता है।
जो भी ज्ञात है, वह अज्ञात में नहीं ले जाता है। सत्य अज्ञात है तो ज्ञात विचार उस तक पहुंचने की सीढि़यां नहीं बन सकती। उनके परित्याग से ही सत्य में प्रवेश होता हैं निर्विचार चैतन्य के आकाश में सत्य के सूर्य के दर्शन होते हैं।
मनुष्य-चित्त ऐंद्रिक अनुभवों को संगृहीत कर लेता है। ये सभी अनुभव बाह्य जगत के होते हैं, क्योंकि इंद्रियां केवल उसे ही जानने मे समर्थ हैं जो बाहर है। स्वयं के भीतर जो है, वहां तक इंद्रियों की कोई पहुंच नहीं। इन अनुभवों की सूक्ष्म तरंगें ही विचार की जन्मदात्री हैं।
इसलिए विचार, विज्ञान की खोज में तो सहयोगी हो सकता है, किंतु परम सत्य के अनुसंधान में नहीं। स्वयं के आंतरिक केंद्र पर जो चेतना है, विचार के द्वारा उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह तो इंद्रियों के सदा साथ में ही है।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि विचारों का आगमन बाहर से होता है। वे विजातीय तत्व हैं। उनसे स्वयं की सत्ता उद्घाटित नहीं, वरन और आच्छादित ही होती है। उनकी धुंध और धुआं जितना गहरा होता है, उतना ही स्व-सत्ता में प्रवेश कठिन और दुर्गम हो जाता है।
जो स्वयं को नहीं जानता है, वह सत्य को कैसे जान सकता है? सत्य को जानने का द्वार स्वयं से होकर ही जाता है। और कोई दूसरा द्वार भी नहीं है। सत्य की बौद्धिक विचार-धारणाओं में पड़े रहना ऐसे ही है, जैसे कोई अंधा व्यक्ति प्रकाश का चिंतन करता रहे।
उसका चिंतन व्यर्थ ही होगा, क्योंकि प्रकाश सोचा नहीं देखा जाता है। उसके लिए विचार नहीं, आंखों का उपचार आवश्यक है। उस दिशा में किसी विचारक की नहीं, चिकित्सक की सलाहें ही उपादेय हो सकती हैं। विचार चिंतन है, दर्शन चिकित्सा है। प्रश्न प्रकाश का नहीं, सदा ही आंखों का है। यही तत्व-चिंतन और योग विभिन्न दिशाओं के यात्री हो जाते हैं।
तत्व-चिंतन अंधों द्वारा प्रकाश का विचार और विवेचना है, जबकि योग आंखें देता है और सत्य के दर्शन की सामर्थ्य और पात्रता उत्पन्न करता है। योग समाधि का विज्ञान है। चित्त की शून्य और पूर्ण जाग्रत अवस्था को मैं समाधि कहता हूं। विषयों की दृष्टि से चित्त जब शून्य होता है और विषयी की दृष्टि से पूर्ण जाग्रत, तब समाधि उपलब्ध होती है। समाधि सत्य के लिए चक्षु है।