चांद पर पहुंच गए तो क्या फायदा होगा: ओशो

ध्यान कोमल प्रक्रिया है। जैसे कोई फूल! और तुम्हारे मन की आदतें जड़ चट्टानों की तरह हैं-बहुत वजनी, बहुत भारी, बहुत कठोर। पर घबड़ाओं मत, वे मृत हैं और तुम्हारा फूल जैसा ध्यान जीवंत है।
और जीवंत में असली बल है, चाहे कितना ही कोमल क्यों न हो। जीवित फूल मुर्दा चट्टानों को तोड़ देगा। तुमने कभी देखा है, चट्टानों में से बीज फूट कर वृक्ष बन जाते है! चट्टान दरक जाती है।
जीवित था बीज, चट्टान को तोड़ गया, वृक्ष फूट आया। चट्टानों से वृक्षों को निकलते देखकर तुम्हें हैरानी नहीं होती कभी? अदभुत शक्ति होगी जीवन की! छोटा सा बीज, कितनी ऊर्जा लिए था!
न केवल खुद टूटा, न केवल अंकुरित हुआ, चट्टान को तोड़ गया है! ऐसे ही आज जो बीज की तरह है ध्यान, कल वृक्ष बनेगा, उसमें फूल भी आएंगे और फल भी आएंगे, महत सुगंध भी उठेगी। चिंता न करो।
असंभव सा लगता था, लेकिन संभव होता है। ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूं। मुझे भी असंभव सा लगता था, वर्षों असंभव सा ही लगता रहा। लेकिन मैं अधीर न हुआ।
कहते पलटू: काहे होत अधीर! जितना असंभव सा लगा उतनी ही मैंने दुबारा से अपनी ऊर्जा लगा दी, उतनी ही मैंने चुनौति स्वीकार की। बस चुनौति को स्वीकार करने की बात है। फिर ध्यान एक अदभुत अभियान है।
चांद-तारों पर पहुंचना आसान है; ध्यान या समाधि में पहुंचना निश्चित ही कठिन है। मगर चांद-तारों पर पहुंच कर भी क्या करोगे? आर्मस्ट्रांग जब पहली बार चांद पर चला तो उसने क्या किया?
सोच रहा था पृथ्वी, कि कब घर पहुंचे, पत्नी-बच्चों की, मित्रों की। सोच रहा होगा कि कौन सी फिल्म लगी है मेरे गांव की टाकीज में। सोच रहा होगा कि आज पत्नी ने क्या भोजन बनाया है।
था चांद पर, मगर सोच क्या रहा होगा? सोच रहा होगा कि बस एकाध दिन की बात और है कि वापस लौटने की घड़ी आई जाती है, घर पहुंचूंगा। चांद पर भी तुम तो तुम ही रहोगे।
तुम कैसे बदल जाओगे! इसलिए चांद पर पहुंच कर भी कोई कहीं नहीं पहुंचता। लेकिन ध्यान में पहुंच कर जरूर तुम एक नये लोक में प्रवेश करते हो।

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