रास को समझने के लिए पहली जरूरत तो यह समझना है कि सारा जीवन ही रास है। जैसा मैंने कहा, सारा जीवन विरोधी शक्तियों का सम्मिलन है। और जीवन का सारा सुख विरोधी के मिलन में छिपा है। जीवन का सारा आनंद और रहस्य विरोधी के मिलन में छिपा है। तो पहले तो रास का जो “मेटाफिजिकल’, जो जागतिक अर्थ है, वह समझ लेना उचित है; फिर कृष्ण के जीवन में उसकी अनुछाया है, वह समझनी चाहिए।
चारों तरफ आंखें उठाएं तो रास के अतिरिक्त और क्या हो रहा है? आकाश में दौड़ते हुए बादल हों, सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिताएं हों, बीज फूलों की यात्रा कर रहे हों, या भंवरे गीत गाते हों, या पक्षी चहचहाते हों, या मनुष्य प्रेम करता हो, या ऋण और धन विद्युत आपस में आकर्षित होती हों, या स्त्री और पुरुष की निरंतर लीला और प्रेम की कथा चलती हो, इस पूरे फैले हुए विराट को अगर हम देखें तो रास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रहा है।
रास बहुत “कॉस्मिक’ अर्थ रखता है। इसके बड़े विराट जागतिक अर्थ हैं। पहला तो यही कि इस जगत के विनियोग में, इसके निर्माण में, इसके सृजन में जो मूल आधार है, वह विरोधी शक्तियों के मिलन का आधार है। एक मकान हम बनाते हैं, एक द्वार हम बनाते हैं, तो द्वार में उल्टी ईंटें लगाकर “आर्च’ बन जाता है। एक-दूसरे के खिलाफ ईंटें लगा देते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ लगी ईंटें पूरे भवन को सम्हाल लेती हैं। हम चाहें तो एक-सी ईंटें लगा सकते हैं। तब द्वार नहीं बनेगा, और भवन तो उठेगा नहीं। शक्ति जब दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है, तो खेल शुरू हो जाता है। शक्ति का दो हिस्सों में विभाजित हो जाना ही जीवन की समस्त पर्तों पर, समस्त पहलुओं पर खेल की शुरुआत है। शक्ति एक हो जाती है, खेल बंद हो जाता है। शक्ति एक हो जाती है तो प्रलय हो जाती है। शक्ति दो में बंट जाती है तो सृजन हो जाता है।
रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे-से-गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते हैं, तब युद्ध हो जाता है। ये दो विरोधी मिल भी सकते हैं, तब प्रेम हो जाता है। लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है। कृष्ण के रास का क्या अर्थ होगा इस संदर्भ में?
इतना ही नहीं है काफी कि हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी बहुत स्थूल आंखें जो देख सकती हैं, उतना ही दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा-सा नाटक है, उस विराट का एक आणविक प्रतिबिंब है। वह जो समस्त में चल रहा है नृत्य, उसकी एक बहुत छोटी-सी झलक है। इस झलक के कारण ही यह संभव हो पाया कि उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। उस रास का कोई “सेक्सुअल मीनिंग’ नहीं है। ऐसा नहीं है कि “सेक्सुअल मीनिंग’ के लिए, कामुक अर्थ के लिए कोई निषेध है। लेकिन बहुत पीछे छूट गई वह बात। कृष्ण कृष्ण की तरह वहां नहीं नाचते, कृष्ण वहां पुरुष तत्व की तरह ही नाचते हैं। गोपिकाएं स्त्रियों की तरह वहां नहीं नाचती हैं, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह।
तो जिन लोगों ने उसे कामुक अर्थ में ही समझा है, उन्होंने नहीं समझा है, वे नहीं समझ पाएंगे। वहां अगर हम ठीक से समझें तो पुरुष शक्ति और स्त्री शक्ति का नृत्य चल रहा है। वहां व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। “इंडिवीजुअल्स” को कोई मतलब नहीं है। इसलिए यह भी संभव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सकता। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता है। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ एक-साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। प्रत्येक गोपी को अपना कृष्ण मिल सका। और कृष्ण जैसे हजार में बंट गए। और हजार गोपियों हैं तो हजार कृष्ण हो गए।
निश्चित ही, इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य है। नृत्य को ही क्यों चुना होगा इस अभिव्यक्ति के लिए? जैसा मैंने सुबह कहा, नृत्य निकटतम है अद्वैत के। निकटतम अद्वैत के है। नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के।
इसे एक तरफ से और देखें–
मनुष्य की पहली भाषा नृत्य है, क्योंकि मनुष्य की पहली भाषा “गेस्चर’ है। आदमी जब नहीं बोला था तब भी हाथ-पैर से बोला था। आज भी गूंगा नहीं बोल सकता, तो हाथ-पैर से बोलता है। “गेस्चर’ से, मुद्रा से बोलता है। भाषा तो बहुत बाद में विकसित होती है। तितलियां भाषा नहीं जानतीं, लेकिन नृत्य जानती हैं। पक्षी भाषा नहीं जानते, लेकिन नृत्य जानते हैं। “गेस्चर’, मुद्रा, इशारा पहचानते हैं। यह सारी प्रकृति पहचानती है।
इसलिए रास के लिए नृत्य ही क्यों केंद्र में आ गया, उसका भी कारण है।
“गेस्चर’ की भाषा, इशारे की भाषा गहनतम है, गहरी-से-गहरी है। मनुष्य के चित्त के बहुत गहरे हिस्सों को स्पर्श करती है। जहां शब्द नहीं पहुंचते, वहां नृत्य पहुंच जाता है। जहां व्याकरण नहीं पहुंचती, वहां घुंघरू की आवाज पहुंच जाती है। जहां कुछ समझ में नहीं आता है, वहां भी नृत्य कुछ समझा पाता है। इसलिए, दुनिया के किसी कोने में नर्तक चला जाए, समझा जा सकेगा। आवश्यक नहीं है कि भाषा कोई उसे समझने के लिए जरूरी हो। यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई सभ्यता और कोई संस्कृति की विशेष आवश्यकता हो उसे समझने के लिए। नर्तक कहीं भी चला जाए, समझा जा सकेगा। मनुष्य के अचेतन में, “कलेक्टिव अनकांशस’ में, सामूहिक अचेतन में भी नृत्य की भाषा का खयाल है।
यह जो नृत्य चल रहा है चांद के नीचे, इस नृत्य को साधारण नृत्य मैं नहीं कहता हूं इसीलिए कि यह किसी के मनोरंजन के लिए नहीं हो रहा है, किसी को दिखाने के लिए नहीं हो रहा है। कहना चाहिए एक अर्थों में “ओवरफ्लोइंग’ है। इतना आनंद भीतर भरा है कि वह सब तरफ बह रहा है। और इस आनंद के बहने के लिए अगर दोनों विरोधी शक्तियां एक-साथ मौजूद हों तो सुविधा हो जाती है। पुरुष बह नहीं पाता है, अगर स्त्री मौजूद न हो। कुंठित और बंद हो जाता है। सरिता नहीं बन पाता, सरोवर बन जाता है। स्त्री नहीं बह पाती, अगर पुरुष उपलब्ध न हो। बंद है। उन दोनों की मौजूदगी तत्काल उनके भीतर जो छिपी हुई शक्तियां हैं, उनका बहाव बन जाती है। वह जो हमने निरंतर स्त्री-पुरुष का प्रेम समझा है, उस प्रेम में भी वही बहाव है। काश, हम उसे व्यक्तिवाची न बनाएं, तो वह बहाव बड़ा पारमार्थिक अर्थ ले लेता है।
स्त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह आकर्षण एक-दूसरे की निकटता में उनके भीतर स्त्री पुरुष के पास अपने को हल्का अनुभव करती है। अलग-अलग होकर वे “टेंस’ और तनाव से भर जाते हैं। वह हल्कापन क्या है? उनके भीतर कुछ भरा है जो बह गया और वे हल्के हो गए, पीछे “वेटलेसनेस’ छूट जाती है। लेकिन हम स्त्री और पुरुष को बांधने की कोशिश में लगे रहते हैं। जैसे ही हम स्त्री और पुरुष को बांधते हैं, नियम और व्यवस्था देते हैं, वैसे ही बहाव क्षीण हो जाते हैं। वैसे ही बहाव रुक जाते हैं। व्यवस्था से जीवन की गहरी लीला का कोई संबंध नहीं है। और कृष्ण का यह रास बिलकुल ही अव्यवस्थित है। कहना चाहिए बिलकुल “केऑटिक’ है। “केऑस’ है। नीत्से का एक बहुत अदभुत वचन है, जिसमें उसने कहा है, “ओनली आउट ऑफ केऑस स्टार्स आर बॉर्न’, सिर्फ गहन अराजकता से सितारों का जन्म होता है। जहां कोई व्यवस्था नहीं है, वहां सिर्फ शक्तियों का खेल रह जाता है। बहुत जल्दी कृष्ण मिट जाते हैं व्यक्ति की तरह, शक्ति रह जाते हैं। बहुत शीघ्र गोपियां मिट जाती हैं व्यक्ति की तरह, सिर्फ शक्तियां रह जाती हैं। स्त्री और पुरुष की शक्ति का वह नृत्य गहन तृप्ति लाता है। गहन आनंद लाता है। और “ओवरफ्लोइंग’ बन जाता है, वह आनंद फिर बहने लगता है। और फिर उस नृत्य से वह सारा आनंद चारों ओर जगत के कण-कण तक व्याप्त हो जाता है।
कृष्ण जिस चांद के नीचे नाचे हैं, वह चांद तो आज भी है; जिन वृक्षों के नीचे नाचे हैं, उन वृक्षों का होना आज भी है; जिन पहाड़ों के पास नाचे हैं, वे पहाड़ भी आज हैं। जिस धरती पर नाचे हैं, वह धरती भी आज है। कृष्ण से जो बहा होगा उस क्षण में, वह सब इनमें छिपा है और यह सब उसे पी गया है।
अब ये वैज्ञानिक एक बहुत नई बात करते हैं। वे यह कहते हैं कि व्यक्ति तो विदा हो जाते हैं लेकिन उनसे छोड़ी हुई तरंगें सदा के लिए रह जाती हैं। व्यक्ति तो विदा हो जाते हैं लेकिन उन्होंने जो जिआ, उसके संघात, उसकी “वेव्ज’, वह सब-की-सब पूरे अस्तित्व में समा जाती हैं और लीन हो जाती हैं। उस पृथ्वी पर जहां कृष्ण नाचे, उस पृथ्वी पर आज भी कोई नाचे तो कृष्ण की प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। जहां उन्होंने बांसुरी बजाई, जिन पहाड़ों ने उस बांसुरी को सुना, उन पहाड़ों के पास आज भी कोई बांसुरी बजाए तो प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। जिस यमुना के तट ने उन्हें देखा और जाना और जिसने उनके स्पर्श को अनुभव किया, उस यमुना के तट पर आज भी नृत्य हो तो व्यक्ति मिट जाता है, वह अव्यक्ति फिर घेर लेता है।
रास को स्त्री और पुरुष के बीच विभक्त जो विराट की शक्ति है, उसके मिलन, उसकी “ओवरफ्लोइंग’ का प्रतीक मैं मानता हूं। और इस भाषा में अगर हम ले सकें, तो आज भी रास का उपयोग है और सदा रहेगा। इधर मैंने निरंतर अनुभव किया है, जो मैं आप से कहूं, ध्यान के लिए हम बैठते हैं, कई बार मित्रों ने मुझे कहा कि स्त्रियों को अलग कर दें, पुरुषों को अलग कर दें। ये दोनों अलग रहेंगे तो सुविधा होगी। उनकी सुविधा की दृष्टि नासमझी से भरी हुई है। वे नहीं जानते हैं कि स्त्रियां अगर इकट्ठी कर दी जाएं एक ओर और पुरुष एक ओर इकट्ठे कर दिए जाएं तो यह बिलकुल सजातीय, एक-सी शक्तियां इकट्ठी हो जाती हैं, और इनके बीच जो बहाव की संभावना है वह कम हो जाती है। लेकिन उन्हें खयाल में नहीं है। मेरी तो समझ ही यही है कि अगर ध्यान हम कर रहे हैं तो स्त्रियां और पुरुष एकदम सम्मिलित और मिले-जुले हों। उन दोनों की समझ के बाहर कुछ घटनाएं घटेंगी, जो उनकी समझ से उसका कोई संबंध भी नहीं है। उन दोनों की मौजूदगी, और अकारण मौजूदगी–कोई आप अपनी पत्नी के पास नहीं खड़े हैं–अकारण मौजूदगी आपके भीतर से कुछ बहने में, प्रगट होने में, निकल जाने में, “केथार्सिस’ में सहयोगी होगी। स्त्री के भीतर से भी कुछ बह जाने में सहयोग मिलेगा।
मनुष्य जाति के चित्त का इतना बड़ा तनाव, इतना बड़ा “टेंशन’ स्त्री और पुरुष को दो जातियों में तोड़ देने से पैदा हुआ है। स्कूल में, कालेज में हम लड़के और लड़कियों को पढ़ा रहे हैं, दो हिस्सों में बांट कर बिठाया हुआ है। जहां भी स्त्री और पुरुष हैं, हम उनको बांट रहे हैं। जब कि जगत की पूरी व्यवस्था विरोधी शक्तियों के निकट होने पर निर्भर हैं। और जितनी यह निकटता सहज और सरल हो, उतनी ही परिणामकारी है।
रास का मूल्य सदा ही रहेगा। रास का मूल्य उसके भीतर छिपे हुए गहन तत्त्वों में हैं। वह तत्त्व इतना ही है कि स्त्री और पुरुष अपने-अपने में अधूरे हैं, आधे-आधे हैं। निकट होकर वे पूरे हो जाते हैं। और अगर “अनकंडीशनली’ निकट हों, तो बहुत अदभुत अर्थों में पूरे हो जाते हैं। अगर “कंडीशंस’ के साथ, शर्तों के साथ निकट हों, तो शर्तें बाधाएं बन जाती हैं और उनकी पूर्णता पूरी नहीं हो पाती। जब तक पुरुष है पृथ्वी पर, जब तक स्त्री है पृथ्वी पर, तब तक रास बहुत-बहुत रूपों में जारी रहेगा। यह हो सकता है कि वह उतनी महत्ता और उतनी गहनता और उतनी ऊंचाई को न पा सके जो कृष्ण के साथ पाई जा सकी। लेकिन अगर हम समझ सकें तो वह पाई जा सकती है। और सभी आदिम जातियों को उसका अनुभव है। दिन भर काम करने के बाद आदिम जातियां रात इकट्ठा हो जाएंगी–फिर स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी का सवाल न रहेगा, स्त्री और पुरुष ही रह जाएंगे–फिर वे नाचेंगे आधी रात, रात बीतते-बीतते, और फिर सो जाएंगे, वृक्षों के तले, या अपने झोपड़ों में। नाचते-नाचते थकेंगे, और सो जाएंगे। और इसलिए आदिवासी के मन में जो शांति है, और आदिवासी के मन में जैसी प्रफुल्लता है, और आदिवासी की दीनता में, हीनता में भी जैसी गरिमा है, वह सभ्य-से-सभ्य आदमी भी सारी सुविधा के बाद उपलब्ध नहीं कर पा रहा है। कहीं कोई चूक हो रही है, कहीं कोई बहुत गहरे सत्य को नहीं समझा जा रहा है।
कृष्ण–स्मृति