मन का रहस्य Osho

फ़्रायड ने अपनी जीवन-कथा में एक छोटा सा उल्लेख किया है. लिखा है उसने कि एक सन्ध्या विएना के बग़ीचे में वो अपनी पत्‍नी और अपने छोटे से बेटे के साथ घूमने गया. देर तक फ़्रायड अपनी पत्‍नी से बातचीत करता रहा, टहलता रहा. फिर साँझ हो गई, द्वार बन्द होने लगे बग़ीचे के, तो वे दोनों बग़ीचे के द्वार पर आए, तब पत्‍नी को ख़्याल आया कि उनका बेटा तो न मालूम कितनी देर से उन्हें छोड़के चला गया है! इतने बड़े बग़ीचे में वो पता नहीं कहाँ होगा! द्वार बन्द होने के क़रीब हैं, उसे कहाँ खोजें? फ़्रायड की पत्‍नी चिन्तित हो गई और घबड़ा गई.
फ़्रायड ने कहा, “घबड़ाओ मत! एक प्रश्‍न मैं पूछता हूँ, तुमने उसे कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? अगर मना किया हो तो सौ में निन्यानबे मौक़े तुम्हारे बेटे के उसी जगह होने के हैं, जहाँ तुमने मना किया हो.”
उसकी पत्‍नी ने कहा, “मैंने मना किया था कि फ़व्वारे पर मत पहुँच जाना.”
फ़्रायड ने कहा, “अगर तुम्हारे बेटे में थोड़ी भी बुद्धि है, तो वो फ़व्वारे पर होगा.”
कई बेटे ऐसे भी होते हैं, जिनमें बुद्धि नहीं होती. उनका हिसाब रखना फ़िजूल है.
पत्नी बहुत हैरान हुई. वो गए दोनों भागे हुए, वो बेटा फ़व्वारे पर पैर लटकाए हुए पानी से खिलवाड़ करता था.
फ़्रायड की पत्‍नी उससे कहने लगी, “बड़ा आश्‍चर्य! तुमने कैसे पता लगा लिया कि बेटा वहाँ होगा?”
फ़्रायड ने कहा, “आश्‍चर्य इसमें कुछ भी नहीं. जहाँ रोका जाए जाने से मन को, मन वहाँ जाने के लिए आकर्षित हो जाता है. जहाँ कहा जाए, मत जाओ! वहाँ एक छुपा हुआ रस, एक रहस्य शुरू हो जाता है.
फ़्रायड ने कहा, “ये तो आश्‍चर्य नहीं है कि मैंने तुम्हारे बेटे का पता लगा लिया, आश्‍चर्य ये है कि मनुष्‍य-जाति इस छोटे से सूत्र का पता अब तक नहीं लगा पाई है!”
ओशो

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