प्रेम से ही सृजन संभव है : ओशो

ओशो
प्रेम के संबंध में इंसान बड़ा दुर्भाग्यशाली है। आदमी को ऐसा ख्याल है कि प्रेम हम जानते ही हैं। वह एकदम सरासर झूठी बात है। न तो पुरुष प्रेम जानते हैं, और न स्त्रियांं प्रेम जानती हैं। प्रेम की भी बहुत बड़ी व्यवस्था और सुविधा होनी चाहिए, जहां प्रेम सीखा जा सके। जैसे, उदाहरण के लिए, जो आदमी प्रेम सीखेगा, उस आदमी से ईर्ष्या विदा हो जानी चाहिए क्योंकि ईर्ष्या और प्रेम का एक साथ अस्तित्व नहीं हो सकता।
पुरुष अहंकार से मरे जाते हैं और स्त्रियांं ईर्ष्या से मरी जाती हैं। एक दुकान ने इस बात की जांच-पड़ताल की कि दुकान के काउंटर पर जो लोग खड़े होते हैं अगर स्त्रियां खरीदी करने आतीं–अब तो सारी खरीद-फरोख्त स्त्रियां करती हैं–तो स्त्रियों से पूछना, क्या लेना है आपको? इससे दुकान को नुकसान होगा। क्योंकि अगर स्त्रियों से पूछा जाए कि क्या लेना है आपको तो उन्हें घर से तय करके आना पड़ता है कि क्या लेना है। उनको अगर दो चीजें खरीदनी हैं तो वे दो ही चीजें बता सकती हैं।
इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने उन दुकानदारों को सलाह दी कि काउंटर पर से आदमियों को हटा दो। दरवाजे पर स्त्री को एक छोटा ठेला दे दिया जाता है, ठेलागाड़ी, और उसे दुकान में भेज दिया जाता है कि तुम्हें जो पसंद हो वह निकाल कर ठेलागाड़ी में रख लाओ। देखिए वह एक ही जगह तीन ऐसी चीजें भी खरीद लाती है, जिसकी उसको जरूरत नहीं है। इस वह व्यर्थ खरीदने का कारण क्या है? कपड़े बदलने का इतना कारण क्या है? सौंदर्य के प्रसाधनों की इतनी बिक्री का कारण क्या है?
उसके बहुत गहरे में ईर्ष्या है। चारों तरफ ईर्ष्या पकड़े हुए हैं। स्त्री के मन से ईर्ष्या नष्ट न हो तो स्त्री कभी भी ठीक अर्थोंं में प्रेमपूर्ण नहीं हो सकती।
ईर्ष्या ने भय भी पैदा कर दिया है। पुरुष स्त्री से डरा हुआ है, घबड़ाया हुआ है, एक मुक्त और सहज संबंध नहीं रह गया। सब स्ट्रेंज हो गया है, सब तन गया है। तो घर शांत कैसे हो सकता है। शांति के फूल तो बहुत सहजता में खिलते हैं।
स्त्री को थोड़ा सोच-विचार, खोज-बीन करनी जरूरी है, बड़े सामूहिक तल से कि ईर्ष्या कैसे नष्ट की जाए। ईर्ष्या के रहते स्त्री का व्यक्तित्व कभी प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि स्त्रियों के सारे हिस्टीरिया, और बीमारियों में अस्सी परसेंट बीमारियां, उनके प्रेम की उपलब्धि नहीं हो पाई, उसके ही कारण हैं। अगर किसी स्त्री को जीवन में प्रेम पूरी तरह मिल जाए तो वह अचानक स्वस्थ हो जाती है।
पुरुष ने उसका व्यक्तित्व छीन लिया है, उसको दबा कर रख दिया है, उसको पजेस कर लिया है, उसका मालिक बन गया है। उसको गुलाम बना डाला है। और स्त्री गुलाम बनने को राजी हो गई है। दोनों का हाथ है। स्त्री मिटने को राजी हो गई है। स्त्री अपने को छाया बनाने को राजी हो गई है।
यह दंग करने वाली बात है। होना तो यह चाहिए था कि स्त्रियों से अच्छी पेंटिंग्स किसी ने भी न बनाई होती। लेकिन अब तक कोई बड़ी स्त्री पेंटर नहीं हुई है, जिसके चित्र प्रथम कोटि में रखे जा सकें। होना तो यह चाहिए था कि काव्य में पुरुषों की कोई गति न हो पाती। लेकिन काव्य की दिशा में भी स्त्री का कोई बड़ा दान नहीं है। आश्चर्यजनक है, सृजन के हर क्षेत्र से स्त्री इतनी दूर क्यों है?
सृजनात्मकता से इतना विरोध? उन्होंने पहले चित्र नहीं बनाए, कविता नहीं की, ठीक था। अब वे कहती हैं कि बच्चे भी नहीं बनाएंगी। क्यों? उनके भीतर इतना दुख और पीड़ा है कि बनाने का ख्याल ही उन्हें नहीं आता। सृजन पैदा होता है आनंद से। सृजन की धारा फूट पड़ती है, जब कोई आनंदित होता है तो सृजन करना चाहता है। और जब कोई दुखी होता है तो विध्वंस करना चाहता है।
आखिर में इस बात पर विचार करें कि किया क्या जा सकता है। पुरुष का हाथ है स्त्रियों को उस दिशा में लाने में। लेकिन स्त्रियों की सहमति है। जब कोई किसी को गुलाम बनाता है तो गुलाम बनाने वाला ही जिम्मेवार नहीं होता, बन जाने वाला भी उतना ही जिम्मेवार होता है।
पुरुष को मुक्ति देनी चाहिए कि स्त्री अपने पैरों पर खड़ी हो सके। लेकिन ध्यान रहे, अगर स्त्री ने यह प्रतीक्षा की कि जब पुरुष हमें मुक्त करेगा, तभी हम मुक्त होंगी; तो वह मुक्ति भी एक गुलामी होगी।
पत्नी होना उनकी जिंदगी की पूर्णता नहीं है। लेकिन पत्नी हो जाने के बाद ‘दि एंड आ जाता है, एकदम से इति आ जाती है। फिर उसके बाद कुछ नहीं होना है। पत्नी होना होने की शुरुआत होनी चाहिए, लेकिन वह होने का अंत हो जाता है!
जिंदगी में और फूल खिल सकते हैं, जिंदगी में और संगीत आ सकते हैं, जिंदगी में बहुत रस हो सकता है, लेकिन पत्नी भर हो जाने से, वह रस कभी भी नहीं होगा। कुछ और भी करना पड़ेगा।
पुरुष ने रोका उसे इस खोज से, क्योंकि पुरुष को डर है कि वह और खोज में जाएगी तो वह और पुरुषों के संपर्क में भी आ सकती है। वही डर आत्मघाती हो गया। वह प्रेम बड़ा कमजोर है जो इतना भयभीत है।
क्या आपको पता है, सैनिकों को अविवाहित रखना पड़ता है, क्योंकि विवाहित सैनिक ठीक से लड़ने को राजी नहीं होता। सैनिकों को अविवाहित रखना पड़ता है ताकि वे लड़ सकें। असल में जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, वे ही लड़ सकते हैं। कोरिया के युद्ध में कोरिया में जो अमरीकी जनरल था, उसने रिपोर्ट दी है अमरीकी सीनेट को कि हमारे सौ सैनिक लड़ने जाते हैं, उसमें से चालीस प्रतिशत बंदूकों का उपयोग नहीं करते।
वे बंदूकें लटकाए हुए घूम-घाम कर वापस आ जाते हैं। और उनसे कहा जाए कि तुम मारते क्यों नहीं, तो वे कहते हैं कि जीवन इतना आनंदपूर्ण है कि दूसरे के लिए भी तो इतना ही आनंदपूर्ण होगा।
प्रेम यदि जीवन में होगा तो आनंद होगा और आनंद होगा तो सृजन भी होगा… बात चाहे स्त्री की हो या पुरुष की।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *