परमात्मा का नाम क्या है : ओशो

ओशो
नाम तो सभी असत्य हैं। परमात्मा अनाम है इसलिए जो भी नाम दिए गए हैं, दिए जाएंगे, सब कल्पित हैं। उनका उपयोग है जरूर, लेकिन उनकी प्रामाणिकता कोई भी नहीं है। जैसे नाम कल्पित हैं, ऐसे ही परमात्मा का नाम भी कल्पित है। एक बच्चा पैदा होता है, अनाम हम देते हैं, उसे नाम। बिना नाम जीवन कठिन होगा। कैसे तो कोई उसे पुकारेगा, कैसे कोई पत्र लिखेगा? जीवन अड़चन होगा। एक कृत्रिम नाम जीवन में सहयोगी हो जाता है, उसकी उपयोगिता है।
भेद करने में सुविधा हो जाती है। जहां-जहां भेद करना है वहां-वहां नाम की उपयोगिता है। लेकिन परमात्मा तो सारी सत्ता का प्रतीक है, अभेद का प्रतीक है, एक का प्रतीक है। जहां अनेक हैं, वहां तो नाम की उपादेयता भी है, लेकिन जहां अनेकता नहीं है, वहां तो बहुत उपादेयता भी नहीं है, लेकिन फिर भी, उसकी खबर देनी हो, जिनको मिल गया हो, जिन्होंने जाना हो, उन्हें दूसरों को जगाना हो तो थीड़ी-सी उपयोगिता है, फिर राम कहो, ओंकार कहो, अल्लाह कहो, पर ध्यान रखना, उसका कोई भी नाम नहीं है।
नाम के पीछे अनाम छिपा है, यह स्मरण बना रहे तो नाम का कोई थरा नहीं है। लेकिन ऐसी भ्रांति न हो जाए कि नाम ही सच हो जाए और अनाम का विस्मरण हो जाए। तो बड़ी चूक हो गई। तो फिर जपते रहना तुम राम-राम फिर करते रहना अल्लाह-अल्लाह।
यारी ने कहा न जबान थक गई चिल्लाते-चिल्लाते, कुछ मिला नहीं, कुछ हाथ न लगा। हाथ लगे भी कैसे? पानी-पानी कहने से प्यास नहीं बुझती है, जब तक कि पानी न चखो। चखने की फिक्र करो, नाम की फिक्र छोड़ो। स्वाद की चिंता लो, स्वाद मिल गया तो सब मिल गया।
एक अर्थ में उसका कोई भी नाम नहीं, दूसरे अर्थ में, वृक्षों से गुजरती हवाएं उसी के नाम का उद्घोष करती हैं। सागर की उत्ताल तरंगें उसी के नाम का जप करती हैं। अनेक-अनेक रूपों में उसी का स्मरण हो रहा है। कोई उसे आनंद की तरह स्मरण कर रहा है। किसी ने उसकी भनक संगीत में सुनी है, वीणा के तारों में सुनी है।
जहां प्रेम है, वहां प्रार्थना है। जहां प्रार्थना है वहां परमात्मा है। किसी की आंख में प्रीति से झांको, उसी का नाम उबर आएगा। किसी का हाथ प्रेम से हाथ में ले लो, उसी का नाम उबर आएगा। ऐसे तो उसका कोई भी नाम नहीं और ऐसे सभी नाम उसके हैं, क्योंकि वही है, अकेला वही है, उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। हम सब उसी की लहरे हैं, उसी के वृक्ष के पत्ते-फूल… हम सब उसी के अंग… न हम उसके बिना है न वह हमारे बिना है।
न तो भक्त के बिना भगवान है, न भगवान के बिना भक्त है। भक्त और भगवान के बीच जो घटता है, वही उसका नाम है। क्या घटता है? कहना कठिन है। कभी कहा नहीं गया, कभी कहा भी न जा सकेगा। चुपचाप घटता है, मौन सन्नाटे में घटता है, अपूर्व शून्य में घटता है। और जब घट जाता है तो जीवन में आ गया वसंत! खिल जाते हैं सारे फूल, जन्मों-जन्मों जो नहीं खिले थे।
गीत झरने लगते हैं जीवन से, जो तुमने कभी कल्पना भी नहीं किए थे, जिनके तुम सपने भी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा रोआं-रोआं किसी उल्लास से, किसी उन्सव से भर जाता है। जिस दिन भक्त और भगवान के बीच शून्य का सेतु बनता है, उस दिन मिलन हुआ। उस दिन ही तुम जानोगे कि क्या उसका नाम है, या कि वह अनाम है।
मधुमास में ही पहचान पाओगे उसके असली नाम को क्योंकि उसका नाम, नाम से हम जो समझते हैं, ऐसा नहीं है। स्वाद है उसका नाम। अनुभव है उसका नाम। प्राणों की अंतर्तम अनुभूति है उसका नाम।
तो मैं तुमसे कहूं राम उसका नाम है तो झूठ होगा, मैं कहूं अल्लाह उसका नाम है तो झूठ होगा।
ऐसे में सब नाम भी उसी के हैं। अल्लाह औरराम ही नहीं, कृष्ण और रहीम ही नहीं, तुमने भी जो नाम रख लिए हैं अपने-अपने बच्चों के, अपने पड़ोसियों के, ये सब नाम भी उसी के हैं। इसमें तुम विरोधाभास मत देख लेना, जिसका कोई नाम नहीं उसी के सब नाम हो सकते हैं और सभी जिसके नाम हैं, उसका कोई एक नाम कैसे होगा? एक में उसे तुम न बांध पाओगे। बांधने की आतुरता भी क्यों?
इसे खयाल में ले लो, जो परिधि पर है, परिधि पर ही रह जाता है, केंद्र पर नहीं पहुंचता, यद्यपि जो केंद्र पर है वह परिधि पर भी आ जाता है, जो भीतर है, प्राणों के प्राण में है, वह तो बहेगा और परिधि को भी घेर लेगा, आवृत्त कर लेगा, लेकिन जो परिधि पर है वह प्राणों में नहीं जा सकता। जो अंतस में है वह तो आचरण बन जाता है, लेकिन जो सिर्फ आचरण में है वह अंतस नहीं बनता है।
तुम नाम जानना चाहते हो, मैं तुम्हें अनाम देना चाहता हूं। तुम नाम से तृप्त होना चाहते हो, मैं तुम्हें स्वाद देना चाहता हूं। मत पूछो नाम, मत पूछो पता। उसी ने तुम्हें घेरा है, वही है तुम्हारे चारों तरफ।
पीयो, खूब-खूब जी भर कर पीयो।
देखते हो, चारों तरफ से हवा ने तुम्हें घेरा है, दिखाई तो नहीं पड़ती है। मगर तुम पी रहे हो तो जी रहे हो। मुर्दा भी एक लाकर यहां रख दो, वह भी है, उसको भी चारों तरफ से हवा ने घेरा है, लेकिन हवा को पी नहीं रहा है, इसलिए मुर्दा है। भक्त और साधारण जन में उतना ही भेद है जितना जीवित और मुर्दे में।

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