कविता में से मनचाहे अर्थ निकल सकते हैं

ओशो
मैं प्रकृति में ही परमात्मा को देखता हूं। प्रतिक्षण, प्रतिघड़ी उसका मुझे अनुभव हो रहा है। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती है, जब उससे मिलना न हो जाता हो। जहां भी आंख पड़ती है, देखता हूं कि वह उपस्थित है और जहां भी कान सुनते हैं, पाता हूं कि उसका ही संगीत है।
वह तो सब जगह है, केवल उसे देखने भर की बात है। वह तो है, पर उसे पकड़ने के लिए आंख चाहिए। आंखे के आते ही सब दिशाओं में और सब समय उपस्थित हो जाता है। रात्रि में आकाश जब तारों से भर जाए, तो उन तारों को सोचों मत, देखो और केवल देखो। विचार न हो और मात्र दर्शन हो, तो एक बड़ा राज खुल जाता है और प्रकृति के द्वार से उस रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा के अवतरण से ज्यादा भी कुछ भी नहीं है और जो उसके घूंघट को उठाना जानते हैं, वे ही केवल जीवन के सत्य से परिचित हो पाते हैं।
सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास था। उसने जाकर पूछा ‘मैं सत्य को जानना चाहता हूं, मैं धर्म को जानना चाहता हूं। कृपा करें और मुझे बताएं कि मैं कहां से प्रारंभ करूं?” सद्गुरु ने कहा ‘क्या पास ही पर्वत से गिरते जलप्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ रही है?”
युवक ने कहा ‘मैं तो उसे भली-भांति सुन रहा हूं।” सद्गुरु बोले ‘तब वहीं से प्रारंभ करो, वहीं से प्रवेश करो। वही द्वार है।” सच ही प्रवेश द्वार इतना ही निकट है-पहाड़ से गिरते झरने में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर नाच रही सूरज की किरणों में। पर हर प्रवेश द्वार पर पर्दा है और बिना उठाए वह उठता नहीं है।
वस्तुत: वह पर्दा प्रवेश-द्वारों पर नहीं है, वह हमारी दृष्टि पर ही है और इस भांति एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया है। एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं। मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमा आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं है, जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है! सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है।
इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य , समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। कृष्ण की गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। पहला कारण : कृष्ण की गीता समन्यव है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की चिंता है।
समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाए तो कृष्ण राजी हैं। कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है, इसलिए सभी को भाती है, क्योंकि सभी का कुछ-न-कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले।
ऐसा कोई व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो गीता में अपने लिए कोई सहारा न खोज ले। इस सबके लिए अष्टावक्र की गीता बड़ी कठिन होगी। अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं-सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है-बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, इसकी चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा, इसकी भी चिंता नहीं है।
सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका। कृष्ण की गीता लोगों को प्रिय है, क्योंकि अपना अर्थ निकाल लेना बहुत सुगम है। कृष्ण की गीता काव्यात्मक है : दो और दो पांच भी हो सकते हैं, दो और दो तीन भी हो सकते हैं। अष्टावक्र के साथ कोई खेल संभव नहीं।
वहां दो और दो चार ही होते हैं। अष्टावक्र का वक्तव्य शुद्ध गणित का वक्तव्य है। वहां काव्य को जरा भी जगह नहीं है। वहां कविता के लिए जरा-सी भी छूट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। किसी तरह का समझौता नहीं है। कृष्ण की गीता पढ़ो तो भक्त अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने भक्ति की भी बात की है, कर्मयोगी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने कर्मयोग की भई बात की है, ज्ञानी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने शान की भी बात की है।
कृष्ण कहीं भक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं कर्म को सर्वश्रेष्ण कहते हैं। कृष्ण का वक्तव्य बहुत राजनीति है। वे राजनेता थे-कुशल राजनेता। सिर्फ राजनेता थे, इतना ही कहना उचित नहीं-कुटिल राजनीतिज्ञ थे, डिप्लोमेट थे। उनके वक्तव्य में बहुत-सी बातों का ध्यान रखा गया है। इसलिए सभी को गीता भा जाती है, इसलिए तो गीता पर हजारों टीकाएं हैं, अष्टावक्र पर कोई चिंता नहीं करता. क्योंकि अष्टावक्र के साथ राजी होना हो तो तुम्हें खुद को छोड़ना पड़ेगा। बेशर्त! तुम अपने को न ले जा सकोगे।
तुम पीछे रहोगे तभी जा सकोगे। कृष्ण के साथ तुम अपने को ले जा सकते हो। कृष्ण के साथ तुम मौजूं पड़ सकते हो। इसलिए सभी सांप्रदायिकों ने कृष्ण की गीता पर टीकाएं लिखीं-शंकर ने, रामानुज ने, निम्बार्क ने, वल्लभ ने, सबने। सबने अपने अर्थ निकाल लिये। कृष्ण ने कुछ ऐसी बात कही है जो बहु-अर्थी है। इसलिए मैं कहता हूं काव्यात्मक है। कविता में से मनचाहे अर्थ निकल सकते हैं।

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