बुद्ध ज्ञानोपलब्ध होने पर काशी आए, और काशी के राजा उनसे मिलने आए। राजा ने बुद्ध से कहा, आपके पास कुछ भी तो नहीं है, आप महज भिखारी हैं। लेकिन आपके सामने मैं ही भिखारी मालूम पड़ता हूं। आपके पास कुछ भी नहीं है, लेकिन आप जिस ढंग से चलते हैं, जिस ढंग से देखते हैं, जिस ढंग से आप हंसते हैं, उससे लगता है कि सारी पृथ्वी ही आपका राज्य है। आपके पास दृश्य में कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं है। फिर आपकी शक्ति का राज क्या है? आप तो सम्राट जैसे दिखते हैं। सच तो यह है कि कोई सम्राट भी कभी ऐसा नहीं दिखा। मानो सारा संसार आपका है। आप सम्राट हैं। लेकिन आपकी शक्ति क्या है? उसका स्रोत क्या है?
तो बुद्ध ने कहा, वह मुझमें है। मेरी शक्ति का स्रोत या जो भी आप मेरे चारों तरफ देखते हैं, वह दरअसल मेरे भीतर है। मेरे पास स्वयं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन वह पर्याप्त है, मैं आप्तकाम हूं मैं अब और कुछ नहीं चाहता। मैं कामना रहित हो चुका हूं।
सच तो यह है कि आत्मोपलब्ध व्यक्ति कामना रहित हो जाता है। इसे स्मरण रखो। साधारणत: हम कहते हैं कि अगर तुम निष्काम हो जाओ तो तुम अपने को जान लोगे। इससे विपरीत ज्यादा सत्य है। अगर तुम अपने को जान लो तो तुम निष्काम हो जाओगे। इसलिए तंत्र निष्काम होने पर जोर नहीं देता, आत्मोपलब्ध होने पर जोर देता है। तब कामना मुक्ति आप ही आती है।
कामना का अर्थ है कि तुम अपने भीतर परितृप्त नहीं हो, भराव नहीं अनुभव करते। तुम्हें किसी चीज का अभाव मालूम पड़ता है, इसलिए तुम उसके पीछे दौड़ रहे हो। परितृप्ति के लिए तुम एक कामना से दूसरी कामना के पीछे भाग रहे हो। अगर तुम कामनाओं के जरिए आनंद की निष्काम दशा को खोजने निकले तो तुम कभी नहीं पहुंचोगे।
इसकी जगह अगर तुम एक दूसरा प्रयोग करो, आत्मोपलब्धि की विधियों का प्रयोग करो, अपनी आंतरिक संभावनाओं को हासिल करने, उन्हें वास्तविक बनाने की विधियों का प्रयोग करो, तो जितने ही तुम वास्तविक होओगे उतनी ही कामनाएं कम होती जाएंगी। क्योंकि कामनाएं असल में इसलिए पैदा होती हैं कि तुम अपने भीतर रिक्त हो, खाली हो। और जब तुम भीतर रिक्त नहीं होते तो कामनाएं विसर्जित हो जाती हैं।
तो इस आत्मोपलब्धि के लिए क्या करें?
दो बातें समझने जैसी हैं। एक कि आत्मोपलब्धि का यह अर्थ नहीं है कि अगर तुम बड़े चित्रकार या महान संगीतज्ञ या महाकवि हो गए तो आत्मोपलब्ध हो गए। हालांकि उस हालत में तुम्हारा एक अंश तो आत्मोपलब्ध होगा, और उससे भी बहुत तृप्ति मिलती है। अगर तुम्हारे भीतर एक अच्छे संगीतज्ञ की संभावना है और तुम उसे वास्तविक बनाओ और संगीतज्ञ बन जाओ तो तुम्हारा एक अंश परितृप्त हो जाएगा। लेकिन उससे तुम्हारा समग्र परितृप्त नहीं होगा, तुम्हारे भीतर की शेष मनुष्यता अतृप्त ही रहेगी। तुम असंतुलित रह जाओगे, एक अंश तो विकसित होगा शेष सब गले में पत्थर की तरह लटकता रहेगा।
एक कवि को देखो। जब वह कवि सुलभ मुद्रा में होता है, वह बुद्ध जैसा दिखता है, वह अपने को पूरी तरह भूल जाता है। मानो उसके भीतर का साधारण मनुष्य विदा हो गया इसलिए कवि कविता की मुद्रा में शिखर छू लेता है। आशिक शिखर। और कभी-कभी कवियों को वैसी झलकें आती हैं जो कि एक बुद्ध के लिए ही संभव हैं।
एक कवि भी बुद्ध की भांति बोल सकता है। उदाहरण के लिए खलिल जिब्रान है। वह बुद्ध की भांति बोलता है, लेकिन वह बुद्ध नहीं है। वह कवि है, महाकवि है। इसलिए तुम खलिल जिब्रान को उसकी कविता के माध्यम से देखो तो वह बुद्ध, क्राइस्ट या कृष्ण दिखता है। लेकिन अगर तुम खलिल जिब्रान नामक व्यक्ति से मिलो तो वह महज मामूली है। वह प्रेम के संबंध में इतने सुंदर ढंग से बोलता है कि बुद्ध भी न बोल सकें। लेकिन बुद्ध अपने पूरे अस्तित्व से प्रेम को जानते हैं, खलिल जिब्रान उसे बस कविता की उड़ान में जानता है।
यही कारण है कि कवि अनुभव करते हैं कि जब वे कविता रचते हैं तो रचने वाला कोई और होता है, वे नहीं। उन्हें लगता है कि वे किसी अन्य ऊर्जा के, शक्ति के हाथों के यंत्र हो गए हैं, वे तब नहीं होते हैं। यह भाव इसलिए आता है कि दरअसल उनका समग्र नहीं मात्र अंश आत्मोपलब्ध होता है। मानो तुमने आकाश नहीं छुआ, सिर्फ तुम्हारी एक अंगुली ने आकाश छुआ है। तुम तो धरती से ही बंधे हो।
बीथोवन के संबंध में कहा जाता है कि जब वह स्टेज पर होता था तो भिन्ना ही आदमी होता था-सर्वथा भिन्ना आदमी। गेटे ने कहा है कि जब बीथोवन स्टेज पर अपने ऑर्केस्ट्रा का निर्देशन कर रहा होता था तब वह मनुष्य नहीं, दिव्य होता था। वह जिस ढंग से देखता था, जिस ढंग से हाथ उठाता था, सब अति मानवीय था। लेकिन स्टेज से उतरकर वह महज मामूली मनुष्य हो जाता था।
यही कारण है कि कवि, संगीतज्ञ, महान कलाकार, सृजनशील लोग ज्यादा तनावग्रस्त हैं। उन्हें दो तरह का जीवन जीना पड़ता है। सामान्य आदमी इतना तनावग्रस्त नहीं होता, क्योंकि वह एक ही अस्तित्व में वास करता है। वह जमीन पर होता है। जब कि कवि, संगीतज्ञ, महान कलाकार छलांग लेते हैं वे गुरुत्वाकर्षण के बाहर चले जाते हैं। किसी-किसी क्षण में वे इस जमीन के नहीं रहते, मनुष्यता केंद्रित, संतुलित के हिस्से नहीं होते। तब वे बुद्धो के देश के हिस्से हो जाते हैं।