सुना है, सिकंदर मरा और जिस राजधानी में मरा, उसकी अरथी निकाली गई तो मरने के पहले उसने अपने मित्रों से कहा, मेरे दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा – ‘पागल हो गए हैं आप? अरथी के भीतर हाथ होते हैं सदा, बाहर नहीं होते।”
सिकंदर ने कहा – ‘मेरी इतनी इच्छा पूरी कर देना हालांकि जीवन में मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाई है। मर कर तुम कम से कम मेरी इतनी इच्छा पूरी कर देना कि मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना।
मरे हुए आदमी की इच्छा पूरी करनी पड़ी। उसके दोनों हाथ बाहर लटके हुए थे। जब उसकी अरथी निकली तो लाखों लोग देखने आए थे। हर आदमी यही पूछने लगा कि अरथी के बाहर हाथ क्यों लटके हैं? कोई भूल-चूक हो गई है। हर आदमी यही पूछ रहा था। सांझ होते-होते लोगों को पता चला, भूल नहीं हुई है। सिकंदर ने मरने के पहले कहा था कि मेरा हाथ बाहर लटके रहने देना। जब मित्रों ने पूछा था क्क ‘क्यों?”
तो सिकंदर ने कहा था – ‘मैं लोगों को दिखा देना चाहता हूं कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। जो पाने की कोशिश की थी, वह नहीं पा सका हूं। मेरे दोनों हाथ खाली हैं, यह लोग देख लें।”
शायद इसीलिए हम हाथों को अरथी के भीतर छिपाते हैं ताकि पता न चल जाए कि हाथ खाली हैं। जिंदगी भर दौड़ते हैं और कहीं नहीं पहुंचते हैं। हां, दिल्ली पहुंच सकते हैं। लेकिन वहां पहुंच कर भी कहीं नहीं पहुंचते हैं। पहुंचना नहीं हो पाता। क्योंकि जिस चीज की तलाश में चलता है आदमी आनंद की तलाश में, वह कहीं भी पहुंच कर नहीं मिलता। वह तो उस आदमी को मिलता है जो पहुंचने की दौड़ छोड़ देता है। क्यों? क्योंकि आनंद आदमी के भीतर है, बाहर नहीं। अगर बाहर होता तो हम दौड़ कर पहुंच जाते और पा लेते। अगर मुझे तुम्हारे पास आना हो तो चलना पड़ेगा। लेकिन अगर मुझे मेरे ही पास जाना हो तो चलने की कोई जरूरत नहीं है। अगर मुझे दूर पहुंचना हो तो यात्रा करनी पड़ेगी। लेकिन अगर मुझे पास ही पहुंचना हो तो कम ही यात्रा करनी पड़ेगी और अगर मुझे वहीं पहुंचना हो जहां मैं हूं, तब तो यात्रा करनी ही नहीं पड़ेगी।
एक बहुत बुनियादी भ्रम है कि आनंद कहीं पहुंचने पर मिलेगा। सारी शिक्षा उस भ्रम को पैदा करती है। वह कहती है, फलां जगह पहुंच जाओ तो आनंदित हो सकते हो।
यही है प्रमाण-पत्र मिल जाने पर आनंद मिल जाएगा। प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं, आनंद नहीं मिलता। तब हाथ में कागज का बोझ घबराने वाला हो जाता है। और तब यह लगता है कि आनंद तो नहीं मिला, लेकिन हम आदमी को दौड़ाते रहते हैं। प्राइमरी में पढ़ता है तो उससे कहते हैं हाईस्कूल में। हाईस्कूल में पढ़ता है तो कहते हैं लक्ष्य है यूनिवर्सिटी में। यूनिवर्सिटी के बाहर निकलता है तो हम कहते हैं, अब जिंदगी में, शादी में, विवाह में। और सब कहानियां, सब उपन्यास और सब फिल्में जहां शादी विवाह हुए, वहीं द एण्ड आ जाता है। उधर से हम कह देते हैं, बस। सब कहानियां पढ़ें तो एक बड़ी मजेदार बात है। उन कहानियों में लिखा है, उन दोनों की शादी हो गई, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे, हालांकि ऐसा होता नहीं। इसके बाद कहानी नहीं चलती है, क्योंकि इसके बाद कहानी बहुत खतरनाक है। कहानी यहां पूरी हो जाती है।
नहीं, न तो शिक्षित होने से आनंद मिल पाता, न तो विवाह से आनंद मिल पाता है, न संपत्ति से आनंद मिल पाता है, न पद-प्रतिष्ठा से आनंद मिल पाता। काश! दुनिया के सब वे लोग जो बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, ईमानदारी से कह सकें तो वे कह सकेंगे कि कुछ भी नहीं मिला। वे सारे लोग, जो बहुत धन इकट्ठा कर लेते हैं, अगर ईमानदार हों और लोगों को कह दें, शायद वे कहेंगे, धन तो मिल गया, लेकिन और कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी कहने की हिम्मत भी नहीं जुटाते। उसका कारण है। कारण यह है, जो आदमी जिंदगी भर दौड़ा हो और जब उसने उस चीज को पा लिया हो, जिसके लिए दौड़ा है। अब अगर वह लोगों से कहे कि पा तो लिया, लेकिन कुछ भी नहीं मिला तो लोग कहेंगे कि तुम व्यर्थ ही दौड़े, तुम्हारा जीवन बेकार हो गया। अब वह अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। भीतर तो जान लेता है कि कुछ भी नहीं मिला। बाहर स्वीकार न करके वह अपने व्यर्थ दौड़ने को बचा ले जाता है।