एक छोटी-सी कहानी आपको सुनाता हूं। गुरु नानक लाहौर के पास एक गांव में ठहरे हुए थे। वहां एक बड़े वैभव शाली व्यक्ति ने जाकर उनको कहा, ‘मेरे पास बहुत संपत्ति है, मुझे उसका सदुपयोग करना है। आप कोई मार्ग बताएं, आप कोई मौका दें, मैं उसका उपयोग कर सकूं।’
नानक ने उसकी तरफ देखा और कहा, मैं तो देखता हूं कि तुम बहुत द्ररिद्र हो, तुम्हारे पास संपत्ति है कहां? व्यक्ति ने कहा, शायद आप परिचित नहीं हैं, मुझे जानते नहीं हैं। आज्ञा दें तो मैं बतलाऊं कि मेरे पास कितनी संपत्ति है।
आप जो कहें वह मैं कर दिखाऊं। नानक ने उसे एक छोटी सी कपड़ा सीने की सूई दी और कहा, मरने के बाद यह मुझे वापस लौटा देना। वह आदमी हैरान हुआ। यह अजीब बात थी, लेकिन सबके सामने नानक से उसने कुछ नहीं कहा। वह लौटा, रात भर सोचता रहा।
मित्रों से पूछा कि क्या कोई रास्ता हो सकता है कि सूई को मैं मृत्यु के पार ले जाऊं? लोगों ने कहा, यह तो असंभव है। इस जगत की सारी संपत्ति मिलकर भी एक सूई को मृत्यु के पार नहीं ले जा सकती। और कैसे भी मुट्ठी बांधी जाए, मुट्ठी इस पार ही छूट जाएगी और कितने ही उपाय किए जाएं लेकिन मृत्यु के सामने सब व्यर्थ हो जाएंगे।
वह रात को चार बजे अंधेरे में लौटा। उसने नानक को सूई वापस कर दी और कहा, मुझे क्षमा करें। इसे वापस ले लें, मेरी संपत्ति इसे मृत्यु के उस तरफ ले जाने में समर्थ नहीं है। नानक ने कहा, अगर एक सूई मृत्यु के उस तरफ नहीं जाती तो फिर तुम्हारे पास ऐसा क्या है, जो मृत्यु के उस पार जा सकेगा?
और अगर ऐसा कुछ भी नहीं है तो अपने को दरिद्र ही जानना। संपन्न केवल वे ही हैं जिनके पास मृत्यु के पार ले जाने को कुछ हो। ऐसी संपत्ति न हो, जो मृत्यु के पार न जा सके। यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि हम बहुत दरिद्र हैं। जगत की संपत्ति को देखकर जो इस भ्रममें पड़ जाते हैं कि उनकी दरिद्रता मिट गई, वे बहुत बड़े भ्रम में जीते जाते हैं।
जगत की संपत्ति संपन्न नहीं बनाती, केवल दरिद्र होने के भ्रम को, केवल दरिद्र होने की स्थिति को छिपा देती है और इसलिए ही सारे लोग जगत में संपत्ति पाने को उत्सुक होते हैं, ताकि वे अपने भीतर की दरिद्रता को भूल सकें। वह जो आंतरिक गरीबी है, वह जो भीतर की दरिद्रता है उसे भूल सकें। वह जो भीतर की कमजोरी और दरिद्रता है वह दिखाई न पड़े इसलिए बाहर की संपत्ति जुटा लेते हैं।
बाहर की संपत्ति में अपने को छिपाने का प्रयास चलता है।ऐसे लोग भूल जाते हैं। और जब तक किसी व्यक्ति को अपने भीतर की दरिद्रता के दर्शन न हों तब तक उसके जीवन में धर्म का प्रवेश नहीं होता। केवल वे ही लोग धर्म सेसंबंध बना पाते हैं जिन्हेंभीतर की दरिद्रता का बोध हो जाए।
महावीर के पास सब कुछ था, बुद्ध के पास सब कुछ था, लेकिन उन्हें दिखाई दिया कि भीतर कुछ भी नहीं है और जिस दिन दिखाई दिया किभीतर कुछ भी नहीं है उस दिन बाहर का सब कुछ व्यर्थ हो गया, फिर उसमें कोईअर्थ भी न रहा। फिर, उसमें कोई अभिप्राय न रहा। फिर उसकी तलाश में भी कोई रस और आसक्ति नरही।
नई दिशा में चल पड़े।धर्म का प्रारंभ शास्त्रों को पढ़ने से नहीं होता, धर्मका प्रारंभ धर्म ग्रंथों के अध्ययन से नहीं होता, धर्मका वास्तविक प्रारंभ आंतरिक दरिद्रता के बोध सेहोता है। और जिस व्यक्ति को वह बोध न पकडता हो उसके पढ़े हुए शास्त्र किसी काम के नहीं होंगे।
धर्म के संबंध में उसकी जानकारी व्यर्थ होगी। केवलवे ही लोग धर्म की बाबद वस्तुत: जिज्ञासु हो सकते हैं जिन्हें भीतर दरिद्रता का स्मरण हो जाए। तब धर्मउनके लिए मात्र एक जिज्ञासा नहीं होगी, बल्कि धर्म उनके लिए प्यास बन जाएगी। जिस व्यक्ति को प्यासलगी हो उसके लिए पानी सार्थक हो जाता है और जिस व्यक्ति को प्यास न लगी हो उसे हम सरोवर के किनारे भी खड़ा कर दें तो भी पानी उसे दिखाई नहीं पड़ता।
पानी को देखने के लिए प्यास चाहिए और धर्म के अनुभव के लिए भी प्यास चाहिए। दुनिया मेंबहुत धर्मग्रंथ हैं, बहुत धर्म मंदिर हैं, बहुत धर्मउपदेशक हैं लेकिन धर्म की प्यास कम होती जा रही है। कारण एक ही है कि हमारी आंतरिक दरिद्रताका बोध कम हो रहा है। जब यह बोध हो जाएगातभी हम उसे पाने का “ङयासकर सकेंगे। तभी हमसच्चे अर्थों में संपन्न हो पाएंगे। अंतर से संपन्न।