मंत्र रटने से चित्त की शांति नहीं पाई जा सकती है, उसके लिए तो मन के भीतर उतरना होगा। शांति से, हौले-हौले उतरना होगा। वही रास्ता है। – ओशो
तुम चौंकोगे यह बात जानकर कि मंत्र नशा है। लेकिन मनोवैज्ञानिक से भी पूछो तो वे भी कहेंगे कि मंत्र नशा है। एक ही शब्द की, संगीतपूर्ण शब्द की पुनरुक्ति से बार-बार रासायनिक परिवर्तन होते हैं तुम्हारे भीतर। उन रासायनिक परिवर्तनों का वही अर्थ होता है ज्यों तुम बाहर से नशा कर लो। नशे और मंत्र में कोई बुनियादी भेद नहीं है। एक आदमी ने भांग पी ली और मस्त हो रहा है। उसकी मस्ती भी झूठी है। तुम जानते हो, उसकी मस्ती झूठी है। घड़ी भर बाद टूट जाएगी।
और एक आदमी वर्षों तक कोई भी मंत्र जपता बैठा रहा है, बैठा रहा है, पुनरुक्ति से बार-बार उसके पूरे मस्तिष्क का स्नायु जाल एक ही झंकार खाते-खाते एक रासायनिक रूपांतरण से गुजर जाता है। वह अपने भीतर ही नशा पैदा करने लगता है। शब्दों में नशा है। तुम जानते हो कि युद्ध पर जाते हुए सैनिक एक खास तरह के बाजे बजाते हैं, एक खास तरह के गीत गाते हैं और नशे से भर जाते हैं। उनके बाहुओं में खून दौड़ जाता है। छाती जोर से धड़कने लगती है। मरने-मारने की आकांक्षा पैदा हो जाती है।
आधुनिक संगीत है, फिल्म संगीत है, उसे सुनते ही तुम्हारे भीतर कामवासना प्रज्वलित होने लगती है। प्राचीन शास्त्रीय संगीत है, उसे सुनते ही तुम्हारे भीतर अगर कोई दुविधा चल भी रही हो तो शांत हो जाती है। सो जाती है। संगीत का रासायनिक परिणाम होता है तुम्हारी देह पर। शब्दों की चोट अर्थ रखती है। एक शब्द तुम्हें उतावला कर देता है, बैचेन कर देता है। दूसरा शब्द मल्हम कर जाता है, सांत्वना दे जाता है। शांत कर देता है तुम्हें।
शब्द ध्वनि है। ध्वनि का खास तरह का रासायनिक परिवर्तन पैदा करता है। अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्षों के पास खास तरह का संगीत बजाया जाए तो वे जल्दी बढ़ते हैं, और एक दूसरे तरह का संगीत बजाया जाए तो उनकी बढ़त रुक जाती है। फूलों के पास खास तरह का संगीत बजाया जाए तो वे बड़े खिलते हैं, बड़े हो जाते हैं। गायों के पास संगीत बजाया जा रहा है अमेरिका में अब, क्योंकि संगीत के प्रभाव में गाय ज्यादा दूध दे देती हैं।
तुम आदमियों को ही नहीं, गायों को भी धोखा देने लगे। गाय को पता नहीं कि यह तरकीब है। संगीत उसके भीतर रासायनिक परिर्वतन ले आता है, कि उसके स्तनों में ज्यादा दूध आ जाता है। मंत्र से शांति होने वाली नहीं है। क्यों? क्योंकि अशांति का कारण मंत्र नहीं है।
एक आदमी धन के पीछे दीवाना है। यह उसकी अशांति है। जब तक वह यह न समझ लेगा कि मेरे धन के पीछे दौड़ने से मेरी अशांति है और जब तक कारण को न छोड़ देगा तब तक शांत नहीं हो सकेगा। मंत्र इत्यादि देने वाले उसे केवल प्रलोभन दे रहे हैं। थोड़े दिन का धोखा खा जाएगा, फिर धोखे टूट जाएंगे। यह दीवार जो गिर चुकी है तुम्हारे चित्त की, यह मंत्रों से उठने वाली नहीं है, कुछ और करना होगा।
वह जो तुम्हारे भीतर चिल्ल-पों चल रही है। महत्वाकांक्षाओं की, पद-प्रतिष्ठा की- यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, यह कर लूं, नाम छोड़ जाऊं दुनिया में! वह जो चिल्ल-पों चल रही है तुम्हारे भीतर, जिंदगी का शोरगुल चल रहा है। यह शोर अगर रुक जाए, यह चिल्ल-पों जिंदगी की अगर रुक जाए तो तुम्हारे भीतर जमीर की आवाज, अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़े। वही आवाज शांति है। शांति कोई मंत्र से मिलने वाली नहीं है।
मंत्र रटने के बादभी हाथ कुछ नहीं आता। और फिर आदमी बड़ा बेईमान है। दूसरों को धोखादेता है, अपने को धोखा देता है, और अंतत: परमात्मा तक को धोखा देने की कोशिश करता है।
एक कथा है। बुद्ध के पास एक युवक आया। दार्शनिक था। उसने बुद्ध से प्रश्न पूछे। बुद्ध ने प्रश्न शांति से सुने और कहा- एक काम कर। दो साल रुक जा। दो साल चुप बैठ। फिर पूछ लेना। फिर तुझे उत्तर दूंगा। उस युवक ने कहा- दो साल चुप बैठूं, फिर आप उत्तर देंगे! उत्तर मालूम हो तो अभी क्यों नहीं दे देते? बुद्ध ने कहा- मुझे उत्तर मालूम है लेकिन अभी तू ले न सकेगा, अभी तेरी पात्रता नहीं है, तू ग्रहण न कर सकेगा। मैं तो अमृत डाल दूं, मगर तेरा पात्र उलटा है, अमृत व्यर्थ जाएगा।
तू दो साल पात्र को सीधा कर ले। तू दो साल चुप बैठ। ऐसी बात सुनकर बुद्ध का एक दूसरा शिष्य भिक्षु जो वृक्ष के पास ही बैठा था, हंसने लगा। उस युवक ने उस भिक्षु शिष्य से पूछा- आप क्यों हंसते हैं? उस भिक्षु ने कहा कि धोखे में मत पड़ना, पूछना हो तो अभी पूछ लो, क्यों कि यही मेरे साथ गुजरी। उन्होंने मुझे कहा कि दो साल चुप बैठ जाओ, मैं दो साल चुप बैठ गया।
अब मेरे भीतर प्रश्न ही नहीं उठते। दो साल चुप्पी में ऐसा मजा आ गया है कि अब लगता है किसको लेना है किसको देना है प्रश्नों से। वे प्रश्न ही गिर गए जो मन में थे। पूछना है तो अभी पूछ लेना। लेकिन बुद्ध ने कहा कि मैं उत्तर नहीं देता, मैं औषधि देता हूं। दो साल के बाद वही हुआ जो होना था।
उस युवक की तमाम शंकाएं निर्मूल हो गईं। चित्त में शांति आ गई। तो कहना यही है कि शब्द नहीं, शब्दों का अर्थ ही जीवन में शांति लाता है।