भय से नहीं प्रेम से धर्म की अनुभूति Osho

समय आ गया है कि हम थोड़े प्रबुद्ध हो जाएं। अपने धर्मों के रूप को बदलें और उन्हें प्रेम की बुनियाद पर खड़ा करें। इसके लिए सीधे हम समाज को नहीं बदल सकते हैं। एक-एक व्यक्ति अपने को बदल सकता है। उस तरह ही समाज बदला जा सकता है।
धर्म की एक शब्द में अगर परिभाषा की जाए तो वह शब्द है: अभय। जो व्यक्ति भय में जीता है वह धार्मिक नहीं हो सकता। हो सकता है कि वह धार्मिक दिखता हो, लेकिन दिखने और होने में बहुत अंतर है। समाज में अक्सर लोग किसी व्यक्ति की प्रशंसा में कहते सुने जाते हैं कि अमुक व्यक्ति धर्मभीरु है। लोग ऐसा मान लेते हैं कि यदि कोई व्यक्ति धर्म से डरने वाला है तो उसका चरित्र अच्छा है, क्योंकि उसे धर्म से भय है, उसे परमात्मा से भय है।
बुरे लोगों को नसीहत देते हुए भी अक्सर कहा जाता है कि कुछ भय करो धर्म का, परमात्मा से डरो, कुछ अच्छे काम करो, अन्यथा नरक में जाओगे। जो लोग ऐसा डर देते हैं उन्होंने भी सुन रखा होता है, या धर्मशास्त्रों में पढ़ रखा होता है। ठीक उसी तरह, जैसे लोगों ने पढ़ रखा है कि आत्मा अमर है। किसी का निधन हो जाने पर सब एक-दूसरे को यह सांत्वना देते सुने जाते हैं कि आत्मा अमर है। उन्होंने यह पढ़ा है और सब प्रकार की कल्पनाएं कर ली हैं।
ऐसे ही हम सबने नरक और स्वर्ग के संबंध में अपने धर्मग्रंथों में पढ़ा है अथवा हमारे बुजुर्गों से सुना है। ये वचन हमारी कल्पना बन गए हैं, हमारे अचेतन का हिस्सा बन गए हैं। बहुत बचपन से हम इन चित्रों की कल्पनाएं अपने अचेतन में संग्रहीत करते रहे हैं। मां बच्चों को धमकाती है कि अकेले बाहर मत जाना। बाहर भूत पकड लेगा। सुबह उठाकर कहती हैं कि उठो, प्रार्थना करो, परमात्मा को प्रसन्न करो, स्वर्ग मिलेगा। सोते रहोगे तो स्वर्ग से चूक जाओगे।
बचपन की इन बातों को हमने अपने अचेतन में संग्रहीत किया हुआ है। धार्मिक कहानियां सुनी हैं, उनकी फिल्में देखी हैं। इन सब चीजों ने हमें एक कल्पना-जाल दिया है, जिसके प्रक्षेपण हम रात्रि के अंधकार में अपने सपनों में देखते हैं और हमें वे सच लगने लगते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई बुरा सपना देखते-देखते हम बहुत भयभीत हो जाते हैं और सच में उठ बैठते हैं और कांपने लगते हैं।
यह भय कल्पना का भय है, यह सत्य नहीं है, जबकि इसका अपना एक सत्य है। जीवन को माया बताने वाले धर्मों ने, धर्मगुरुओं ने हमारे सपनों को भी सत्य जैसा प्रतीत करवा दिया है। हम मरने के बाद नरक में जाएंगे या नहीं, लेकिन कल्पनाओं और सपनों में जीने वाले के लिए यही जीवन नरक बन जाता है, अगर वह भय की कल्पनाओं में जीता है। ऐसा व्यक्ति जीता कम है, प्रतिपल मरता अधिक है।
निरंतर भय में जीने वाला व्यक्ति कभी प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता है और प्रेम बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। प्रेम बिना धार्मिकता का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि प्रेम ही जीवन है और भय मृत्यु है। धर्म ही पूर्ण जगत को धारण किए है, यह जीवन की आधारशिला है। यह पूरा ब्रह्मांड, इसका संपूर्ण ताना-बाना एक सूक्ष्म अंतरसंबंध से जुड़ा है, समायोजित है। इसलिए किसका भय, कैसा भय?
लेकिन यह बात हमारी अनुभूति नहीं है। इसलिए कि हमारा अचेतन हमें इसके विपरीत सपने दिखाता है, इसके विपरीत कल्पनाएं देता है। यही कारण है कि हम भयभीत हैं और भयाक्रांत व्यक्ति आक्रामक हो जाता है। असुरक्षा के भाव से घिरा व्यक्ति अपनी आत्मरक्षा के बहाने, दूसरे व्यक्ति पर आक्रमण करता है। जो व्यक्ति के तल पर सच है, वही एक बड़े पैमाने पर देशों के तल पर सच है।
यहां हर देश दूसरे का दुश्मन है, निरंतर आत्मरक्षा की तैयारियों में लगा हुआ है। रोटी खाने को मिल न मिले, लेकिन एटम बमों के निर्माण के लिए सारी शक्ति नियोजित कर देना यहां प्रत्येक देश की जरूरत बन गई है। इसके बाद भी कहने को ये सभी देश किसी न किसी रूप में धार्मिक हैं।
पश्चिमी मुल्क ईसाइयत और यहूदी धर्म को मानते हैं, मध्यपूर्व के मुल्क इस्लाम को मानते हैं, पुर्वी मुल्क बुद्ध, राम, कृष्ण, ताओ और महावीर को मानते हैं। साम्यवादी मुल्क अपवाद हैं। लेकिन धार्मिक मान्यताओं वाले मुल्क निरंतर एक-दूसरे के साथ युद्धों में संलग्न हैं। उन्होंने धर्मों को भी युद्धों से जोड़ लिया है।
हमने हजारों साल से धर्म को, परमात्मा को भय से जोड़ा है, इसलिए हम हजारों साल से हिंसा में संलग्न हैं और किसी न किसी तरह हिंसा से ही जुड़े रहने का यह क्रम आज भी जारी है। समय आ गया है कि हम थोड़े प्रबुद्ध हो जाएं। धर्मों के इस रूप को बदलें और उन्हें प्रेम की बुनियाद पर खड़ा करें।
इसके लिए सीधे हम समाज को नहीं बदल सकते हैं। एक-एक व्यक्ति अपने को बदल सकते हैं। एक-एक व्यक्ति अपने को बदल सकता है। व्यक्ति अगर अपने जीवन में ध्यान लाए, होश लाए संवेदना लाए तो वह दूसरे व्यक्ति में अपनी छवि देख लेगा। वह दूसरे व्यक्ति से प्रेम भी करेगा। प्रेम करने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता। और न ही वह हिंसक होता है।
बुद्ध यही समझाते हैं, महावीर और उपनिषद यही समझाते हैं। गुरु नानक और संत कबीर यही समझाते हैं। बाइबिल और कुरान यही समझाते हैं। सभी प्रज्ञापुरुष यही कहते हैं कि हम उनके शब्दों पर अटक न जाएं, अपने भीतर अभय और अमरत्व की अनुभूति करें।
ओशो कहते हैं अपना सत्य ही मुक्त करता है। दूसरों के सत्य सिद्धांत बन जाते हैं, संप्रदाय बन जाते हैं। दूसरों के सत्य तो बंधन बन जाते हैं। इसलिए अपना सत्य स्वयं तलाशने की ओर बढ़ो।

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