हम सभी अपने धर्मों को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं। हम दूसरे धर्मों की खूबियों के प्रति आंख मूंदे रहते हैं। सच्ची धार्मिकता तो तमाम तरह के बंधनों से मुक्त होने में ही है।
यह जीवन, यह अस्तित्व, यह दुनिया एक है, लेकिन हमारा मन इसे खंडों में बांट देता है और फिर ये खंड आपस में लड़ते हैं। जहां भी टूट-फूट है, वहां कलह है, लड़ाई है।
आज पृथ्वी पर अनेक धर्म हैं। इनमें आपस में बहुत विवाद हैं। विवाद का एक ही मुख्य कारण है कि हम श्रेष्ठ हैं, दूसरे हीन। यह विवाद बहुत ही स्थूल स्तर पर है और इसी की घिनौनी अभिव्यक्ति हम अकसर देखते हैं- सब तरह की हिंसा के रूप में।
यह उपद्रव हजारों से होता रहा है। कुछ और धर्म हैं जो सूक्ष्म तल पर अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, वे हिंसा और मारकाट में संलग्न दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन वे भी भीतर से दूसरों को स्वीकार नहीं करते। वे अपने ही अहंकार के संसार में जीते हैं। उनका विवाद करने का ढंग शालीन, सभ्य और सुसंस्कृत होगा।
मोटे तौर पर देखें तो ये दो प्रकार के धर्म हैं दुनिया में- एक, जिनकी अभिव्यक्ति स्थूल है और दूसरे, जिनकी अभिव्यक्ति सूक्ष्म है। अगर आप गहराई से इन दोनों प्रकार के धर्मों के अनुयायियों को देखें तो पाएंगे कि दोनों में कोई धार्मिकता नहीं है।
ये दोनों अपने प्राचीन जड़तापूर्ण विश्वासों और विचारों से बंधे हैं- इतने बंधे हैं कि इनसे कोई सीधा संवाद नहीं हो सकता। मनुष्यों से अगर कोई सीधा संवाद संभव है तो उसका एक ही माध्यम है मनुष्य का हृदय, हृदय का हृदय से संवाद। यही संवाद मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। इस तरह का संवाद कैसे किया जाए, उसके लिए कुछ बातों को समझने की जरूरत है।
हमारे जन्म के साथ हमें कुछ विश्वास पकड़ा दिए जाते हैं। इनमें से कई विश्वास जीवन-विरोधी होते हैं। वे मनुष्य को मनुष्य से जोड़ते नहीं, दूर करते हैं।
इन विश्वासों को इतना अधिक पोषित किया जाता है कि हम अपने आसपास के जीवन को स्वयं अपनी आंखों से देखना भूल जाते हैं। इन विश्वासों के कारण ही हमारी आंखों की नैसर्गिक निर्मलता और शुद्धि नष्ट हो जाती है। हम प्रेम के रास्ते से हटकर घृणा के रास्ते पर चल पड़ते हैं।
हमें सिखाया जाता है कि हम हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, जैन, ईसाई, यहूदी, भारतीय, पाकिस्तानी, चीनी हैं। ये सभी लेबल हैं, जिनका मनुष्य की आत्मा से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन ये लेबल हमारी वास्तविकता बन जाते हैं और इनकी रक्षा के लिए हम लड़ते-झगड़ते हैं। इनके साथ हमारा गहरा जुड़ाव घातक सिद्ध हुआ है। इनके नाम पर बड़ी हिंसा हुई है।
धर्म के नाम पर हुई ये हिंसाएं किसी भी कसौटी पर धार्मिक नहीं कही जा सकतीं। यह जीवन, यह अस्तित्व, यह दुनिया एक है, लेकिन हमारा मन इसे खंडों में बांट देता है और फिर ये खंड आपस में लड़ते हैं। जहां भी टूट-फूट है, वहां कलह है, लड़ाई है। एक खंड दूसरे खंड से उलझता है, टकराता है और जीवन को नारकीय बना देता है।
मनुष्य के मन में खंड पैदा हो गए हैं, लेकिन मनुष्य की चेतना अखंड है। यह ऐसा ही है जैसे एक घड़े के भीतर का आकाश और घड़े के बाहर का आकाश घड़े के भीतर का पानी और बाहर नदी का पानी। वे दोनों एक हैं, लेकिन घड़े की दीवारों के कारण भीतर-बाहर की एकता हमें दिखना बंद हो जाती है। वे दीवारें मात्र कामचलाऊथीं, उनका अपने-आप में कोई परम मूल्य नहीं है।
उनको बहुत ज्यादा मूल्य देना, महत्व देना ही उपद्रव को मोल लेना है। अपने आवरणों के साथ इतना लगाव और अपनी आत्मा के प्रति इतना अलगाव ही धर्म के जगत में घटित हुई एक बुनियादी भूल है, जिसका भारी दुष्परिणाम दुनिया को झेलना पड़ा है।
अब समय आ गया है कि हम अपनी अखंड चेतना की अनुभूति में उतरें और मन की दीवारों से व परतंत्रताओं से मुक्त हों। हम चेतना के मुक्त आकाश में अपनी निजता और अखंडता के साथ उड़ सकते हैं, अगर हम अपने मन की बोझिलता को गिरा दें, निर्भार हो जाएं। यह पूरा जगत, यह पूरा अस्तित्व हमारा घर है, परिवार है। वसुधैव कुटुंबकम्!
ओशो कहते हैं : ‘यह अस्तित्व सभी के साथ समान व्यवहार करता है। यह सभी को समान सम्मान देता है, समान प्रेम देता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है और उसमें सत्य का जो प्रतिफलन होगा, वह भी अनूठा होगा।
इसलिए तुम बुद्ध के सत्य को मत खोजना। वह तुम्हें कभी नहीं मिलेगा। तुम्हें तो अपना ही सत्य खोजना पड़ेगा। कुछ लोग यह सोचकर कि सत्य सनातन है, वेदों की पूजा में लगे हैं और उनके भीतर का वेद सोया ही पड़ा रह जाता है।
वे आगे कहते हैं : ‘जिस दिन कोई जगता है अपने सत्य के प्रति उस दिन उसे एक अनूठा अनुभव होता- कि मेरा सत्य मेरा ही नहीं है, जिनने भी जाना है, सबका है और जो भी आगे जानेंगे, उनका भी है। यही तो सत्य की रहस्यमयता है- अति प्राचीन, नित नूतन।” लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हमारा मन केवल अतीत से बंधा रहता है और भविष्य की कल्पनाओं में खोया रहता है। वर्तमान के क्षण की ताजगी से वंचित रह जाता है।
सम्यक ध्यान की विधियां हमें वर्तमान में होने की कला सिखाती हैं। ध्यान है प्रथम और अंतिम मुक्ति। ध्यान की स्थिति में जीवन जैसा है वैसा ही दिखाई पड़ता है, हमें अस्तित्व का शुद्ध बोध होता है। इस बोध की अवस्था में हम मनुष्यता की अखंडता की अनुभूति करते हैं और मनुष्य को हम उसके लेबलों के पार देख पाते हैं और उसके साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करते हैं।
तब हम धर्म के लेबलों या आवरणों को महत्व नहीं देते, इनके पार जो उसका अपना होना है, उसकी आत्मा, उसकी चेतना को महत्व देते हैं। तब हम धर्मों में नहीं, बल्कि धार्मिकता में रस लेते हैं।