ब्रह्मचर्य से मिली शक्ति का उपयोग हो सकता है आपने सोचा है। अब आपके पास वह ताकत है, वह गति है, वह यान है, वह नाव अब आपके पास है, जिसमें बैठकर दूसरे किनारे जा सकते हैं। इस नाव की पूजा मत करने लगना, बैठकर इस किनारे पर। इस नाव को सजाकर और उत्सव मत मनाने लगना। तृप्त मत हो जाना कि नाव मिल गयी। क्योंकि नाव मिलने से क्या होता है? नाव में यात्रा करने से कुछ होता है। ब्रह्मचर्य नाव है। इसलिए यह सूत्र कहता है कि मद और संतुष्टि से रक्षा करने की जरूरत है।
क्योंकि यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गयी हो। जरा-सी गफलत और विजय भी पराजय में परिवर्तित हो सकती है। जरा सी चूक, जरा सी भूल और ठेठ आखिरी क्षण में भी वापिस लौटना हो सकता है। जब तक साधन ही हाथ में है, तब तक साध्य खोया जा सकता है। और कई बार तो इसी ख्याल से कि मिल गया, जो मिला था, वह खो जाता है।
तो एक ख्याल तो साधक को निरंतर ही मन में बनाए रखना चाहिए कि कहीं भी तृप्त नहीं होना है। अतृप्ति की एक जलती लहर भीतर बनी ही रहे, एक लपट कि और, और, और रास्ता अभी बाकी है। एक दिन जरूर ऐसा आता है कि रास्ते सब समाप्त हो जाते हैं। उस दिन फिर अतृप्ति का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन ध्यान रखना कि इस जगह की पहचान क्या है? थोड़ी जटिल बात है। कैसे पहचानेंगे कि, वह जगह आ गयी, जहां अब अतृप्ति का कोई कारण नहीं? जिस दिन तृप्ति का भी कोई कारण न रह जाए, उस दिन समझ लेना अब अतृप्ति का भी कोई कारण नहीं है।
इसलिए जटिल है बात। जहां मन में न तृप्ति रह जाए, न अतृप्ति ,समझना कि मंजिल आ गयी। अगर तृप्ति भी मालूम पड़ रही हो, तो समझना कि अभी मंजिल नहीं आयी है।