सभी धर्मों के आचार्य और दार्शनिक ‘मैं’ अर्थात अहंकार को ईश्वर साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधा मानते रहे हैं। आचार्य रजनीश (ओशो) एक कहानी सुनाया करते थे- एक साधु किसी गांव से गुजर रहा था। उस गांव में उसका परिचित साधु रहता था।
उसने सोचा आधी रात हो रही है, क्यों न मित्र के पास रहकर रात काटी जाए। साधु के आश्रमनुमा कमरे की खिड़की से प्रकाश आते देखकर उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, कौन है?
उसने यह सोचकर कि मित्र आवाज से पहचान ही लेगा, कहा, मैं हूं। इसके बाद भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, पर कोई जवाब नहीं मिला। अंत में उसका धैर्य जवाब दे गया और उसने पूरा जोर लगाकर कहा, मेरे लिए तुम दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे हो?
भीतर से आवाज आई, तुम कौन नासमझ हो, जो खुद को ‘मैं’ कहते हो। ‘मैं’ कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के किसी और को नहीं है। प्रभु के द्वार पर ‘मैं’ का ही ताला है। जो उसे तोड़ देता है, वह पाता है कि प्रभु के द्वार उसके लिए सदा से ही खुले थे।
संत कबीरदास तो अपनी साखी में स्पष्ट कहते हैं- जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि हैं, मैं नाहिं। प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाहिं।। वास्तव में अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति का विवेक नष्ट होते देर नहीं लगती। वह स्वयं अपने हाथों विनाश के लिए तत्पर हो उठता है।