जीवन जीने के दो ढंग Osho

हमारी चेतना पर जब विचारों का बहुत बोझ होता है, मन में ऊहापोह होती है, तो समझें कि चेतना कैद हो गई है, उस पर ताला लग गया है। इस कैद से परे जाने पर ही आनंद मिल सकता है।
जीवन जीने के दो ढंग हैं- एक ढंग है चिंतन का, विचार का और दूसरा है अनुभूति, अधिकतर लोगों पर मन का दबाव होता है। वे सोच-विचार में उलझ जाते हैं। वे सोचते ज्यादा, जीते कम हैं।
क्योंकि वे सोचने को ही जीवन समझ लेते हैं। बौद्धिकता को ही अनुभव समझ लेते हैं। वे धर्मग्रंथ और दर्शन पढ़ते हैं और समझते हैं कि उन्हें सारा ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा। सब सिद्धांतों की जानकारी उन्हें यह भ्रांति भी देती है कि वे ब्रह्मज्ञानी हो गए हैं। इसी भ्रांति के कारण वे दूसरों के साथ ज्ञान बांटने लगते हैं।
उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहता कि यह सब ज्ञान उधार का है, बासी है। इस ज्ञान से उनका अपना कोई रूपांतरण नहीं हुआ है। उधार के ज्ञान से किसी का भी जीवन आलोकित नहीं हो सकता है बल्कि यह डर रहता है कि कहीं अहंकार न घेर ले। वे अपने अहं की कैद में फंस जाते हैं।
हमारी चेतना पर जब विचारों का बहुत बोझ होता है, ऊहापोह होती है, तो यह समझें कि चेतना कैद हो गई है, उस पर ताला लग गया है। यह एक ऐसी कैद है जिसके जेलर हम स्वयं ही हैं। ऐसे में छटपटाहट की स्थिति निर्मित होती है।
ऐसे में व्यक्ति धर्मग्रंथ पढ़ता है, दर्शन प्रणालियों पर विचार करता है लेकिन जो कुछ भी करता है वह मन के दायरे में ही होता है, उससे मन के कैदखाने की दीवारें टूटती नहीं, बल्कि और मजबूत होती जाती हैं। इनसे उसे न कोई समाधान मिलता है और न कोई मुक्ति, बल्कि निराशा-हताशा, अतृप्ति और अवसाद बढ़ता जाता है।
प्रश्न यही है कि इस ताले को कैसे खोला जाए? तो अनुभवी व्यक्तियों का निष्कर्ष है कि ध्यान ही वह कुंजी है जिससे यह ताला खुलता है और समाधि ही समाधान है।
अपने मन के पार सोचने या जाने का प्रयास ही सारी चीजों से मुक्त करता है। जापान में जेन साधक साधना करते हैं। अपनी विधियों से वे नो-माइंड, अ-मन की अनुभूति करते हैं। उनमें से एक विधि है श्वास को शांत करना, उसकी गति को धीमा, और धीमा करते जाना।
साधारणत: प्रत्येक मनुष्य एक मिनट में कोई पंद्रह से बीस बार श्वास लेता है। जेन साधक अपने श्वास पर ध्यान करता है, श्वास की गति धीरे-धीरे शांत होती जाती है। वह इतनी धीमी हो जाती है कि एक मिनट में चार-पांच श्वास तक पहुंच जाती है। उस बिंदु पर आकर मन के पार जाने की पूर्व तैयारी होती है, क्योंकि तब विचार भी शांत होने लगते हैं। श्वास और विचार-प्रवाह का एक अंतर्संबंध है।
इधर श्वास शांत होती है और उधर विचार शांत होने लगते हैं। जब आप भय, क्रोध, वासना या किसी प्रकार की उत्तेजना में होते हैं उस समय गौर करें कि आपकी श्वास भी तेज गति से चलने लगती है और विचारों का ओलिंपिक शुरू हो जाता है। आप आपा खो बैठते हैं।
आत्मासिकुड जाती है और विक्षिप्तता आपको पकड लेती है। आप बुरी तरह विचारों के जाल मेंजकडे जाते हैं। श्वास का अस्त-व्यस्त होना आपके भीतर विचारों का महाभारत खड़ा कर देता है। इसलिए जेन साधक अपने विचारों के साथ संघर्ष नहीं करते और न ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। वे अपनी श्वास की ओर उन्मुख होते हैं और उसे साधते हैं। निश्चित ही यह अनुभूति का आयाम है।
आप अपने विचारों से उलझते नहीं, उनके पार चले जाते हैं। यह घड़ी है आत्मज्ञान की, जहां सब उधार ज्ञान और मन का पूरा जाल पीछे छूट जाता है। ओशो इसे ही साक्षीभाव कहते हैं। इस साक्षीभाव को पाना ही आनंद है, वही धन्यता है। इस अवस्था में सब द्वंद्व मिट जाते हैं।

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